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जयोदय-महाकाव्यम् मुद्दधारोद्धृतवनी ममास्मिन् दुकूले बहुला गुणास्तन्तवः सन्ति, किमतोऽप्यधिकगुणवत्स्वर्ग
मिति ॥६२॥
बलिसनि तस्य यदा ध्यानं बभारोदरे सा सन्मानम् । मुक्तालयमीक्षितुमुत्कस्यास्य मुदे स्तनमण्डलं तु तस्याः ॥६३॥
बलिसानीत्यादि-यदा तस्य जयकुमारस्य ध्यानं बले राज्ञः सपनि पाताले बभूव तवा साप्युदरे सन्मानं बभार यतस्तस्या उदरं वलीनां सम। तथा मुक्तानां निर्वृतानामालयमीक्षितु दृष्टुमुत्कस्याभिलाषिणोऽस्य जयस्य मुदे प्रसन्नताय तु पुनस्तस्याः. स्तनमण्डलमभूयतस्तन्मुक्तानां हारगतानां मौक्तिकानामालयो बभूव खलु ॥६३॥
स्वमयं विश्वमवादहोन्नेतुं विश्वप्रेमपरे नवरे तु ।
सदाशावती सदा शर्मणि तस्य शर्मभाक् किल सधर्मणि ॥६४॥ स्वमयमित्यादि-नवरे मनुष्यशिरोमणौ तु पुनविश्वस्य प्रेम्णि परे परायणे विश्वप्रेमपरे सति इह सा विश्वं समस्तमपि जगद् उन्नेतुमुन्नतं कर्तुं स्वमयमात्मरूपं निजगाद यत: सदा सर्वदैव शर्मणि हितकर्तव्ये समीचीना या आशाभिलाषा तद्वती सती, अत एव शर्मभाक् सुकृतभोक्त्री भूत्वा किल तस्य समिणी तुल्यविचारवती बभूव । अनुप्रासः ॥६४॥
थी कि इससे बड़ी पृथिवी नहीं है और कदाचित् गुणयुक्त स्वर्गके विषयमें विचार करते थे तो वह अपना अम्बर-वस्त्र उठाकर कह देती थी कि जितने गुण-तन्तु इसमें हैं उतने गुण-लाभ स्वर्गमें नहीं हैं ॥६२।।
अर्थ-जब जयकुमारका ध्यान बलिके स्थान-पातालमें जाता था तब सुलोचना अपने उदरमें सन्मानको प्राप्त होती थी, क्योंकि पाताल तो एक ही बलिका स्थान है पर मेरा उदर अनेक वलियों-त्वक्संकोचोंका स्थान है और जब जय-- कुमार मुक्तालय-सिद्धालयको देखनेके लिये उत्कण्ठित होते थे तब उनके हर्षके लिये सुलोचनाका स्तनमण्डल पर्याप्त होता था, क्योंकि जिस प्रकार सिद्धालय मुक्तों-सिद्धोंका आलय है उसी प्रकार स्तनमण्डल भी मुक्तालय-हारमें अनुगुम्फित मुक्ताफलोंका स्थान था ॥६३॥ ___ अर्थ-जब नरशिरोमणि जयकुमार विश्वप्रेममें तत्पर होते थे तब वह सुलोचना विश्व-समस्त जगत्को समुन्नत करनेके लिये आत्मरूप-अपने समान कहती थी, अर्थात् समस्त जगत्को आत्मतुल्य मानती थी और सदा ही उसके सुखकी उत्तम आशा रखती हुई सुखी होती थी । इस प्रकार वह जयकुमारकी सर्मिणीसदृश आचरण करने वाली थी ॥४॥
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