Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 638
________________ सप्तविंशतितमः सर्गः पादुकेव सति कण्टकाततेऽप्यस्ति चिज्जगति गुप्तये यतेः । अङ्गिनः स्वतलसादभासिनी दीपिकेव जगते प्रकाशिनी ॥६२॥ पादुकेवेत्यादि -- यश्चिद् बुद्धिः सा कण्टकैरातते व्याप्ते जगति भूतले सत्यपि पादुकेव तस्य स्वस्य रक्षाविधायिनी सास्ति, किन्त्वङ्गिनः संसारिणस्तु सा मतिः दीपिकेव जगते प्रकाशवायिनी च स्वतलसात् स्वान्ततलस्यैव वाऽभासिनो न ज्ञानवती भवति । उपमालंकारः ।। ६२॥ ६२-६४] विषयोत्थं सुखं यत्तद् विषान्नमिव दुःखदम् । त्यक्त्वा निजं विजानातु सुधारसमयं बुधः ॥ ६३ ॥ विषयोत्थमित्यादि - बुधो बुद्धिमान् नरः समस्ति यः स विषयेभ्यो रामादिसंपर्केभ्य उत्था जन्म यस्य तत्सुखं विषान्नमिव विषमिश्रित भोजनमिव दुःखदमित्यतस्तत् त्यक्त्वा सुधारसमय ममृतभावपूर्णमथ च सुधारस्य संशोधनस्य समयोऽवसरो यस्य तं निजमात्मानं विजानातु ॥ ६३ ॥ आपातमात्ररमणीयमणीय एतत् किम्पाकवत् परमपाकरणीयतेतः । १२४३ पातु नृपातुरतया तु न यातु कश्चिद् धर्म्यं विपाकपटुकं कटुके विपश्चित् || ६४ ॥ आपातेत्यादि - एतल्लोकसम्मतं वैषयिकं सुखमणीयोऽत्यन्ताल्पं क्षणस्थायि चाssपातरम्यमेव रमणीयं तत्कालमनोहरमिव भाति, किन्तु परिणामे दुःखदं किपाकवन्महा Jain Education International अर्थ-जगत् के कण्टकोंसे व्याप्त रहते हुए योगी-मुनिकी वृत्ति पादुकाके समान गुप्ति-रक्षा के लिये है, अर्थात् जिस प्रकार कण्टकाकीर्ण भूमि पर चलते समय पादुका रक्षा करती है, उसी प्रकार मुनिकी बुद्धि रागरङ्गसे भरे हुए जगत् में उनकी रक्षा करती है और संसारी मनुष्य की बुद्धि दीपकके समान यद्यपि जगत् लिये प्रकाशित करती है, परन्तु अपने आपको प्रकाशित नहीं करती'दिया तले अंधेरा' की लोकोक्तिको चरितार्थ करती है ॥६२॥ अर्थ - जो विषय जन्य सुख है, वह विषमिश्रित अन्नके समान दुःखदायक है, अतः उसे छोड़कर ज्ञानी पुरुष सुधारसमयं - अमृत रससे परिपूर्ण अथवा सुधार - संशोधनके अवसरसे सहित निज आत्माको जाने ||६३|| अर्थ — हे नृप ! हे राजन् ! यह विषय सुख प्रारम्भ में ही रमणीय है, अत्यन्त अल्प है तथा किपाक फल-विषफलके समान है, अतः अब तुम्हारी इसमें अपा ८१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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