Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 662
________________ ४५-४६ ] अष्टाविंशतितमः सर्गः १२६७ नभोगतत्वसंग्राही नित्यमेव निरम्बरः । परमागमतल्लीनः परमामहरन्नपि ॥४५॥ नभोगेत्यादि-नभसि आकाशे गतस्वस्य संग्राही सर्वदा आकाशगामी च निरम्बरः आकाशहीन इति विरोषः । तस्य परिहारः-भोगतत्त्वं विषयतत्परता न संगृह्णातीति न भोगतत्वसंग्राही विषयवासनातीतो नित्यमेव निरम्बरो वस्त्राच्छावनरहित इति परिहारः। अथवा नासावेशं गच्छतीति नभोगं यत् तत्वं स्वरोदयज्ञानं तस्य संग्राही इत्यपि विक् । परेषां मां लक्ष्मी अहरन् परषनहरणरहितः सन्नपि परमाया आगमे संग्रहणे तल्लीन इति विरोधः, तस्मात् परमे आप्तोपझे अहेतुवावरूपे च तस्मिन् आगमे शासने तल्लोन इति परिहारः ॥४५॥ आदिनाथोक्तमावेशं गतोऽनाविस्थलं वधत् । अजपोक्तविधि वाउछन् स जपेऽभूत् परायणः ॥४६॥ आदिनाथेत्यादि-आदिनाथेन उक्तं प्रारब्धं स्वामिना कथितम् आदेशं गतः, स एव अनाविस्थलं प्रारम्भविहीनं स्थानं वध इति विरोषः। तत आदिनाथेन पुरुदेवेनोक्तं मावेशं गतस्सन् नादि न भवतीत्यनादि स्थलं निःशब्दं स्थानं वधव् इति परिहारः । जपो न भवतीत्यजपः, तदुक्तं विधि वान्छन् स जपे परायणोऽभूदिति विरोधस्तत. अर्ज परमात्मरूपं पालयतीति अजपः, इत्येवमुक्तो यो विधिस्तं वान्छन् इति परिहारः ॥४६॥ अर्थ-वे नभोगतत्त्वसंग्राही-आकाशगमनके संग्राही होकर भी निरम्बरआकाशसे रहित थे, यह विरोध है । परिहार पक्षमें भोगतत्वके संग्राही न होकरनिरन्तर निरम्बर-वस्त्र रहित थे। वे परमां अहरन्-दूसरेकी सम्पत्तिका हरण करनेवाले न होकर भी परमागमतल्लीन-दूसरेकी सम्पत्तिके आगम-प्राप्त करनेमें तल्लीन थे, यह विरोध है। परिहार इस प्रकार है कि परम आगमसर्वज्ञ प्रणीत आगममें तल्लीन थे ।।४५॥ अर्थ-वे आदिनाथके द्वारा कथित आदेशको प्राप्त होकर अनादि-आदिरहित स्थलको प्राप्त थे, यह विरोध है। परिहार इस प्रकार है-आदिनाथभगवान् वृषभदेवके द्वारा प्रतिपादित आदेश-आज्ञाको प्राप्त होकर अनादिस्थलंशब्द रहित स्थलको प्राप्त हुए थे। तथा अजपोक्तविधि वाञ्छन्-जपरहितके द्वारा कथित विधिकी इच्छा करते हुए जपमें तत्पर हुए थे, यह विरोध है, परि हार इस प्रकार है-अजप-परमात्मस्वरूपका पालन करनेवालेके द्वारा प्रतिपादित विधिकी इच्छा करते हुए जसमें तत्पर हुए थे ॥४६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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