Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 667
________________ १२७२ जयोदय -महाकाव्यम् [ ५५ मरुता वायुनाश्रितां सम्पत्तिमिच्छता निर्जराशय संजुषा जरारहितं आशयं बिभ्रता अनवच्छिन्न विचारेण तेन स्वरं गच्छतीति स्वरङ्गो नासावेशगामी तत्ता साधु उरीक्रियते स्म प्राणायामप्रवृत्तिः क्रियते स्मेत्यर्थः । मरुतया मरुस्थलरूपेण आश्रितां सम्पत्तिमिच्छता जलाशयरहितवृत्तिना तेन सा धूरी एव रेणुप्राया स्वरङ्गताध्वनि विश्रुता क्रियते स्मेत्यर्थः ॥ ५४ ॥ सज्जातरूपक्लृप्तिश्च विटपत्वातिगास्य तु । सदारता स्थितिस्त्यक्तदारस्यापि सदध्वनि ॥ ५५ ॥ सज्जातेत्यादिद- अस्य जयकुमारस्य विटपत्वात् शाखित्वाद् अतिगा दूरवर्तिनी अपि तरूणाम् उपक्लृप्तिः सम्पत्तिः सज्जा शोभितेति विरोधः तस्य परिहारः - विटपत्वात् कामित्वाद् अतिगा दूरवर्तिनी निष्कामिता, अत एव सज्जातरूपक्लृप्तिः सम्यग् यज्जातरूपं नवजात शिशुस्वरूपं तस्य क्लृप्तिः नग्नरूपता विटपत्वाद् व्यभिचाराद् अतिगा दूरवर्तनी जाता । त्यक्तवारस्य स्त्रीरहितस्य चास्य सदारता स्त्रीयुक्ततेति विरोधः, तस्य परिहार:- सध्वनि सन्मार्गे सदा सर्वदेव रता तल्लीना स्थितिरिति दिक् ॥ ५५ ॥ अङ्गता स्वीकृत की जाती है, अर्थात् जो स्वर्गकी सम्पत्तिकी इच्छा रखता है वह स्वर्गके शरीर - वैक्रियिक शरीरको स्वीकृत करता है । अर्थान्तर - पवन से आश्रित सम्पत्तिकी इच्छा करने वाला तथा शिथिलता रहित आशय से युक्त मनुष्य अच्छी तरह नासिका विवरसे निकलने वाले स्वरोंको साधने की वृत्ति - प्राणायामको स्वीकृत करता है । अर्थान्तर — मरुस्थल सम्बन्धी सम्पत्तिका इच्छुक तथा जलाशयरहित वृत्तिको धारण करनेवाला मनुष्य मार्गमें धूलीको ही फाँकता है ॥५४॥ अर्थ - इन जयकुमारके विटपत्वातिगा - वृक्षत्वसे दूर तरूपक्लप्तिः वृक्षोंकी सम्पत्ति सज्जा-शोभित थी, यह विरोध है, क्योंकि जो वृक्षत्व से रहित है उसके तरूप संपत्ति - वृक्षरूप सम्पत्ति कैसे हो सकती है ? विरोधका परिहार इस प्रकार है कि उनकी सज्जातरूपसम्पत्तिः - सद्योजात बालकके समान नग्नरूपता विटपत्वातिगा - कामीपन - व्यभिचार से दूर थी । वे त्यक्तदार - थे, स्त्रीके त्यागी थे, फिर भी उनकी सदारतास्थिति - स्त्रीसहित जैसी स्थिति थी, यह विरोध है, क्योंकि जो स्त्रीका त्यागी है, उसकी सदार-सस्त्रीक स्थिति कैसे हो सकती है ? विरोधका परिहार इस प्रकार है कि वे व्यक्तदार थे - स्त्रीरहित थे और उनकी स्थिति सदा-सर्वदा सदध्वनि - समीचीन मार्ग में रता- लीन थी ॥५५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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