Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 668
________________ ५६-५७ ] अष्टाविंशतितमः सर्गः १२७३ सनस्तेनोपकाराय विधिरङ्गीकृतः सदा । भीमयमङ्गतानां च भीमुषेदमिहाद्भुतम् ॥५६॥ सनस्तनेत्यादि-भीमयानां भयभीतानां तेषां मङ्गतानां भिक्षुकाणां भीमुषा भयापहारकेण, येषां यदेव वस्तु तदेवापहारकेण चौरप्रसिद्धत्वात्पुनः स्तेनोपकाराय चौराणां प्रक्रमाय चौर्यप्रेरणाय स प्रसिद्धो विधिः नाङ्गीकृत इति विरोधः, तस्मात् भीमश्च यो यमोऽन्तकस्तं गच्छन्तीति तेषां भीमयमङ्गतानां भयंकरमृत्युमुखे स्थितानां जन्ममरणवतां नः इत्यस्माकं भीमुषा भयापहारकेण तेन जयकुमारेण अस्माकं संसारिणामुपकाराय स विधिस्तपस्यारूपोऽङ्गीकृत इति ॥५६॥ अग्ने स तस्करयुति लेभे नावत्तभागपि । न देवस्थानुमोदाय सदैव गणभृच्च सन् ॥१७॥ अन इत्यादि-अवत्तभागपि चौर्यरहितोऽपि स अग्रे तस्कराणां चौराणां संयुति संयुति लेभे इति विरोधः, तस्मात् सतः गुणविशिष्टस्य नरस्याने करयोर्हस्तयोः युति संयोजना लेभे इत्यर्थः। स देवगणभृत् पूर्वोपार्जितकर्मवान् सन् देवस्थानुमोवाय समर्थ अर्थ-भयभीत भिक्षुकोंके भयको हरने वाले जयकुमारने स्तेनोपकाराय चारोंका उपकार करनेके लिये उस भयापहरण रूप विधिको सदा स्वीकृत नहीं किया था, अर्थात् यद्यपि वे भयभीत भिक्षुकोंका भय दूर करनेवाले थे, फिर भी चौरोंका निराकरण नहीं करते थे। इस अभिप्रायसे कि चौरीके बिना चोर दुःखी हो जायेंगे, अतः भिक्षुक सदा भयभीत रहते थे, क्योंकि जिसके पास जो वस्तु है उसके लिये वही श्रेष्ठ होती है। यह अद्भुत विरोध है, इसका परिहार इस प्रकार है-भीमयमं गतानां-भयंकर यम-मृत्युको प्राप्त लोगोंके भीमुषा-भयका अपहरण करनेवाले तेन जयकुमारेण-उन जयकुमारने-नः-अस्माकं उपकारायहम सबके उपकारके लिये स विधिः-तपस्या रूप उस विधिको अङ्गीकृत किया था ॥५६॥ अर्थ-वे जयकुमार नादत्तभागपि-चोरीके त्यागी होकर भी आगे तस्करयुति-चौरोंकी संगतिको प्राप्त थे, यह विरोध है । परिहार इस प्रकार है । कि वे सतः अग्रे करयुति-सत्पुरुषके आगे हाथ जोड़नेकी क्रियाको प्राप्त थे। तथा सदैवगणभूत-पूर्वोपााजित कर्मसमूहके धारक होकर भी दैव-कर्मकी अनुमोदनाके लिये नहीं थे, अर्थात् वैव-भाग्यके समर्थक नहीं थे, यह विरोध है । परिहार इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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