Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 653
________________ १२५८ जयोदय-महाकाव्यम् [ २७-२८ प्राप्तेन अन्तस्थाश्च ऊष्माणश्च यद्वा तेषां विहीनता यकाराविहकारपर्यन्ताक्षरज्ञानरहितता आपि ॥२६॥ नमःस्तुतोऽयमोंकारो विसर्गान्तस्वरूपतः । तेनानन्दमयेनापि रूपापभ्रंशवेदिना ॥२७॥ नम इत्यादि-तेन जयकुमारेण ओंकार इत्ययमक्षरः नमःस्तुतः नमःशब्देन युक्तः आपि जपितुमारब्धः, ततः रूपस्य अपभ्रंशो विनाशस्तद्वेदिना रूपातीतध्यानज्ञेन अत एव आनन्दमयेन परमप्रसन्नभावं प्राप्तेन मकारेण न स्तुतो, योऽयमोंकारः मकाररहितः पुनविसर्गान्तस्वरूपतः ओः इति एवंरूपः आपि प्राप्तः, रूपस्य योऽपभ्रंशो विकारस्तद्वेदिना अस्पष्ट भाषिणा इति हर्षसमये ओः इत्युच्यते सर्वैस्तथा तेनापि 'ओं नमः' इति जापतत्परेण ओः इति हर्षातिरेकः प्राप्त इत्यर्थ ॥२७॥ तपसाधिगतामेव काञ्चनस्थितिमादधत् । मुद्रोचितं प्रयोगेण के कणं कृतवानसौ ॥२८॥ तपसेत्यादि-तपसा वह्निप्रयोगेणाधिगतां प्राप्तां काञ्चनस्य सुवर्णस्य स्थिति आदधत् स्वीकुर्वन् असौ जयकुमारो मुद्रोचितं मुद्रायोग्यं तत्सुवणं प्रयोगेण निजकौशलकर्मणा कङ्कणं कृतवान्, अथवा तपसा अनशनादिनाधिगतां काञ्चनानिर्वचनीयां स्थिति भावार्थ-अ इ उ ऋ ल ए ओ ऐ औ ये ९ स्वर तथा कवर्गादि पाँच वर्गोंके पच्चीस अक्षरोंमें ही जिसका आदरभाव है, उसका अक्षरविज्ञान अपूर्ण रहता है, क्योंकि समस्त अक्षरोंमें य र ल व ये चार अन्तःस्थ और श ष स ह ये चार ऊष्मा वर्ण भी सम्मिलित हैं। जो अकारसे लेकर म पर्यन्तके हो अक्षरोंमें आदरभावसे सहित होता है, उसके अन्तस्थ और ऊष्माके आठ अक्षर छूट जाते हैं, अतः विकलता-अपूर्णता रहती है ॥२६॥ अर्थ-रूपातीत ध्यानके ज्ञाता तथा परमप्रसन्न भावको प्राप्त हुए उन जयकुमारने 'ओं' इस मन्त्रको नमः शब्दके साथ स्तुतिकी, पश्चात् रूपके विकारको जानने वाले उन जयकुमारने जिसमें म निकल गया है और अन्तमें विसर्ग आ गया है, ऐसे 'ओः' शब्दको प्राप्त किया ॥२७॥ अर्थ-अनशनादि तपसे प्राप्त किसी अनिर्वचनीय दशाको धारण करनेवाले जयकुमारने कं-अपनी आत्माको कण-आत्मनिर्णयसे युक्त अत एव मुद् रोचितंप्रसन्नतासे शोभा युक्त किया। अर्थान्तर-तपसा-अग्निके प्रभावसे प्राप्त सुवर्णकी स्थितिको स्वीकृत करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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