Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

View full book text
Previous | Next

Page 659
________________ १२६४ जयोदय-महाकाव्यम् [ ३९-४० शेष परिग्रहः सन् त्यागेन सहितो नासीद् इति विरोधस्तस्मान्नतेनम्रताया आगमेन सहित इति परिहारः ॥३८॥ संगीतगुणसंस्थोऽपि सन्नकिञ्चन रागवान् । वर्णनातीतमाहात्म्यो वणितोचितसंस्थितिः ॥३९॥ संगीतेत्यादि-संगीतस्य गानस्य गुणे संस्था स्थितिर्यस्य सोऽपि सन् किञ्चना रागवान् मनागपि गानशीलो नासीदिति विरोधः, ततः संगीता संस्तुता गुणानां संस्था यस्य स सन् अकिञ्चनधर्मे रागवान् तल्लीन इति ज्ञेयं तथा वर्णनयातीतं रहितं माहात्म्यं यस्य सोऽपि वणिता संकोतिता उचिता स्थितिर्यस्य स इति विरोधः, ततो वणिताया निःस्त्रीकताया उचिता स्थितिर्यस्येति परिहारः ॥३९॥ श्रीयुक्तदशधर्मोऽपि नवनीताधिकारवान् । तत्त्वस्थिति प्रकाशाय स्वात्मनैकायितोऽप्यभूत् ॥४०॥ श्रीयुक्तेत्यादि-श्रीयुक्ताः शोभासहिताः क्षमादयो दशधर्मा यस्य स श्रीयुक्तदशधर्मः सन्नपि नवसंख्यात्मकाधिकारयुक्तः अभूदिति विरोधः । तस्य परिहारः- नवनीतस्य परिग्रहका त्यागकर देनेपर भी नत्यागमहितः-त्यागसे सहित नहीं थे, यह विरोध है। परिहार इस प्रकार है कि समस्त परिग्रहका त्यागकर देनेपर भी नत्यागमा हितः-नम्रताकी प्राप्तिसे हितरूप थे ।।३८|| अर्थ-वे जयकुमार संगीतके गुणोंमें स्थितिको प्राप्त होकर भी-संगीतके अच्छे ज्ञाता होकर भी रागसे सहित नहीं थे-स्वर विज्ञानसे शून्य थे, यह विरोध है। परिहार इस प्रकार है कि प्रशंसनीय गुणोंकी स्थितिसे सहित होकर भी आकिञ्चन्य धर्मसम्बन्धी राग-प्रेमसे सहित थे। तथा अवर्णनीय माहात्म्यसे युक्त होकर भी वर्णनीय योग्य स्थितिसे सहित थे । जो अवर्णनीय है वह वर्णनीय कैसे हो सकता है ? यह विरोध है, परिहार इस प्रकार है कि वर्णनातीत माहात्म्यसे युक्त होकर भी वणिता-ब्रह्मचर्यके योग्य स्थितिसे सहित थे, अथवा ब्रह्मचर्यविषयक उचित स्थितिसे सहित थे ॥३९॥ __ अर्थ-शोभा सहित क्षमादि दश धर्मोसे युक्त होकर भी वे नवनीताधिकारवान्-नौ धर्मों के अधिकारसे सहित थे, यह विरोध है । परिहार इस प्रकार है कि वे दश धर्मों के अधिकारसे युक्त होकर भो नवनीत-मक्खनके समान कोमलताके अधिकारी थे। जीवादि सात तत्त्वोंकी स्थितिका प्रकाश करनेके लिये एक स्वकीय आत्माके साथ ही एकत्वको प्राप्त थे, यह विरोध है । परिहार इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690