Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
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७-८] अष्टाविंशतितमः सर्गः
१२४९ हेरयैवेत्यादि-सर्पवत् स राजा जयकुमारः भोगिनां सुखोसम्पत्तिशालिना पक्षे सर्पाणामधिनायकः, अत एवाहीनः समुन्नतः पक्षेऽहीनां सर्पाणामिनः स्वामी, इरया व्याप्तं पृथिव्या स्वीकृतं पक्षे विषरूपव्यापत्तिसमाकान्तं कञ्चुकमङ्गरक्षक पक्षे निर्मोक मुक्तवान् तत्याज ॥६॥
पञ्चमुष्टि स्फुरद्दिष्टिः प्रवृत्तोऽखिलसंयमे ।
उच्चखान महाभागो वृजिनान् वृजिनोपमान् ॥७॥ पञ्चमुष्टीत्यादि-स्फुरन्ती दिष्टि: भाग्यसत्ता यस्य स वृजिनोपमान पापतुल्यान् वृजिनान् केशान् पञ्चमुष्टि यथा स्यात्तथा उच्चखान पञ्चमुष्टिलोचनं कृतवान् इत्यर्थः । 'वृजिनं कलुषे क्लीवं केशे ना कुटिले त्रिषु' इति विश्वलोचने ॥७॥
कृताभिसन्धिरभ्यङ्गनीरागमहितोदयः ।
मुक्ताहारतया रेजे मुक्तिकान्ताकरग्रहे ॥८॥ कृताभिसन्धिरित्यादि-मुक्तिकान्तायाः कराहे परिणयने कृता अभिसन्धिविचारधारा येन सः, अङ्गमभिव्याप्य वर्तत इत्यभ्यङ्गं शरीरं प्रति ये रागात् निष्कान्ता नोरागास्तैमहितः पूजित उदयो यस्य स नोरागमहितोदयः पक्षेऽभ्यङ्गमुद्वर्तनं च नोरं च तयोः आगमेन संसर्गेण हितस्योदयो यस्य सः, मुक्तः आहारोऽशनं येन तस्य भावस्तत्ता तया, पक्षे मुक्तानां मौक्तिकानां हारो यस्य तस्य भावस्तेन रेजे शुशुभे ॥८॥
अर्थ-जो सर्पके समान भोगियों-सुखसम्पत्तिशाली मनुष्यों (पक्षमें फणाधारी सौं) के नायक थे तथा अहीन-समुन्नत (पक्षमें अहियों सोके इन- . स्वामो) थे, ऐसे जयकुमारने इरा पृथिवीरूप इरा-मदिराके द्वारा व्याप्त कञ्चुकअंगरक्षक पक्षमें कांचलीको छोड़ दिया था ॥६॥
अर्थ-जिनका भाग्य प्रबल था तथा जो सकल संपमके धारण करनेमें प्रवृत्त थे, ऐसे जयकुमारने पापतुल्य केशोंको पाँच मुष्टियोंमें ही उखाड़ डाला ॥७॥
अर्थ-मुक्तिरूपी कान्ताके पाणिग्रहण-विवाहमें जिनका अभिप्राय लग रहा है तथा अभ्यङ्गनीराग-शरीरके प्रति वीतराग मनुष्योंके द्वारा जिनका उदयअभ्युदय पूजित है (पक्षमें उबटन और जलसे जिनकी शोभा बढ़ रही है), ऐसे जयकुमार मुक्ताहारतया-आहारका त्याग करनेसे (पक्षमें मोतियाँका हार धारण करनेसे) सुशोभित हो रहे थे ॥८॥
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