Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 650
________________ २१-२२ ] अष्टाविंशतितमः सर्गः १२५५ अशिष्टमित्यादि-अशिष्टं सभ्यतारहितम् अन्त्यजं चाण्डालादिकं स्पृष्ट्वा यः वर्णतो जात्या आदिजः प्रथमवर्णोत्पन्नः स पुनस्तत्क्षणादेव के जले बलं शरीरं धृत्वा समवगाहोत्यर्थः, स्नातको जातः कृतस्नानोऽभूत् । तथा यो वर्णतः अक्षरोच्चारणात्मकनामतः आदौ जकारो यस्य एतादृशो यः यकारोऽर्थात् जयः जयकुमारो मुनिः, सः अकारेण शिष्टं प्रारब्धोच्चारणम् अन्त्ये भवोऽन्त्यो जकारो यस्य तं अजं परमात्मरूपं स्पृष्ट्वा समासाद्य तत्क्षणादेव केवलं नामातीन्द्रियं पूर्ण ज्ञानं धृत्वा सम्प्राप्य स्नातकत्वमहत्त्वम् अगात् प्राप्तवान् ॥२०॥ विलोमगामिनं चैव निजं मत्वा जिनोऽभवत् । सहिष्णभावतः स्वीयां शक्तिमुद्योतयन्नयम् ॥२१॥ विलोमेत्यादि-अयं जयकुमारः विलोमगामिनविरुद्धमपि जनं निजं बन्धुरूपं चैव मत्वा सहिष्णुभावतः क्षमाशीलत्वात् स्वीयां शक्तिमुद्योतयन् जिनोऽभवत् । तथा निजमित्येतत्पदं विलोमगामिनं विपरीतपाठं मत्वा जिनः समभूदिति युक्तम् ॥२१॥ विनतात्मभुवा किन्न साम्प्रतमजपक्षिणा। अहिन्दुरयताऽवापि हिन्दुजातेन धीमता ॥२२॥ विनतेत्यादि-हिंसां दूषयन्तीति हिन्दवस्तेषां तातेन पूज्येन धीमता विज्ञेन तेन विनतः पराजितः आत्मभूः कामो येन तेन, साम्प्रतमधुना अजपक्षिणा आत्मचिन्तकेन अर्थ-जो वर्णकी अपेक्षा आदि वर्णज-क्षत्रिय वर्णमें उत्पन्न थे, ऐसे जयकुमार मुनि अशिष्ट-असभ्य अन्त्यज-चाण्डालका स्पर्शकर तत्काल के-जलमें वलं धृत्वा-शरीर धारणकर-जलमें डुबकी लगाकर स्नातकत्व-कृतस्नान अवस्थाको प्राप्त हुए । अथ च, वर्ण-अक्षरकी अपेक्षा जिसके आदिमें ज है, ऐसा य, अर्थात् जय मुनिने जिसके प्रारम्भमें अ है और अन्तमें ज है ऐसे अज-परमात्माका स्पर्शकर-ध्यानकर तत्काल केवलज्ञान प्राप्तकर स्नातकत्व-अर्हन्त अवस्था प्राप्त कर ली ॥२०॥ अर्थ-जयकुमार मुनि विरुद्ध पुरुषको भी अपना बन्धु मानकर सहनशीलतासे अपनी शक्ति विकसित करते हुए जिन-अर्हन्त हो गये थे, अथवा 'निज' इस पदको विपरीत क्रमसे मानकर जिन हुए थे ॥२१॥ अर्थ-जिन्होंने कामदेवको जीत लिया था, जो अज-परमात्माके पक्षसे सहित थे अथवा आत्मचिन्तक थे, हिन्दुओंके पूज्य थे तथा बुद्धिमान् थे, ऐसे जयकुमार केवलीने क्या हिंसकत्वका अभाव प्राप्त नहीं किया था ? अवश्य प्राप्त किया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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