Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 648
________________ १६-१७ ] अष्टाविंशतितमः सर्गः १२५२ राजसत्वमित्यादि-स जयकुमारः तपोपहतया तमोगुणनिहरणतया पक्षेऽन्धकारनाशकतया सूर्यवस्थितः सन् कजातं स्वसमुत्पन्नं कमानन्दं पक्षे कमलमधिकुर्वाण: सन् सत्त्वेन नामगुणेन रञ्जिता भावना मनोवृत्तिर्यस्य सः पक्षे सत्त्वेन शीघ्रमेव जितं भानां नक्षत्राणामवनं रक्षणं येन स, 'अवनं रक्षणे मुदि' इति विश्वलोचने । राजसत्वं राजसगुणं पक्षे राज्ञः चन्द्रस्य सत्त्वमतीयाय त्यक्तवान् भूपरूपं च त्यक्तवान् ॥१५॥ दिन एव व्यभात् सद्यो गोचरीकृतभक्षणः । रात्रावविधुरत्वेन स्थितिमाप्त्वेत्यथाद्भुतम् ॥१६॥ दिनेत्यादि-स दिन एव सद्यः सकृदेकवारं गोचरीवृत्त्या कृतं भक्षणं भोजनस्वी. कारो येन सः पक्षे गोचरीकृतः स्पष्टता नीतो नानां तारकाणां क्षणः समयो रात्रिलक्षणो येन सः, अथ पुनः रात्रौ अविधुरत्वेन अविकलत्वेन पक्षे विधु चन्द्रमसं राति पातीति तदभाववत्वेन चन्द्ररहितत्वेन स्थिति निश्चलतां पक्षे व्यवस्थां आप्त्वा स्वीकृत्य व्यभात् शुशुभे । एतदद्भुतम् ॥१६॥ अपूर्वकरणं कर्तुं स पृथक्त्वविचारतः । अप्रमत्तदशाविष्ट आत्मानं विचचार सः ॥१७॥ अपूर्वकरणमित्यादि-सः अप्रमत्तदशां प्रमादरहितामवस्थां यद्वाऽप्रमत्तनामक. सप्तमगुणस्थानवृत्तिमाविष्टः सन् पृथक्त्ववितर्कतः स्वशरोरादपि ममायमात्मा भिन्न अर्थ-जो तमोपहता-तमोगुणके नाशक, पक्षमें अन्धकारके नाशक होनेसे सूर्यके समान स्थित थे, जो जातं कं-समुत्पन्न आत्मसम्बन्धी आनन्दको (पक्षमें कंजातं-कमलको अधिकृत किये हुए थे और सत्त्वरंजितभावनः-सत्त्वगुणसे अनुरक्त मनोवृत्ति वाले थे (पक्षमें सत्त्वरं शीघ्र ही जितभावनः-नक्षत्रोंके अवनरक्षणको जीतने वाले थे ।) ऐसे जयकुमार मुनिने राजसत्व-रजोगुणका (पक्षमें चन्द्रमाका अथवा राजावस्थाके अस्तित्वका उल्लंघन किया था)। भावार्थ-उन्होंने तमोगुण और राजसगुण पर विजय प्राप्त की थी॥१५॥ अर्थ-वे दिनमें ही एक ही बार आहार करते थे और रात्रिमें पूर्णरूपसे निश्चलताको प्राप्तकर सुशोभित होते थे । अथवा वे दिनमें हो भ-क्षण-नक्षत्रोंका समय, अर्थात् रात्रिको प्रकट करते थे और रात्रिमें चन्द्राभावको स्थितिको प्राप्त कर सुशोभित थे, यह आश्चर्यकी बात थी ॥१६॥ अर्थ-अप्रमत्तदशा-प्रमादरहित दशाको प्राप्त हुए जयकुमार मुनि पृथक्त्ववितर्क-अपने शरीरसे मेरी यह आत्मा पृथक् है, इस प्रकारके विचारसे अपूर्वकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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