Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 637
________________ १२४२ जयोदय-महाकाव्यम् [ ६०-६१ गानयोग्येन कर्तव्येन रहितत्वादगेयः सन्देहायैवास्मै कर्तव्य इवाचरतीति कर्मकरायते हा खेदप्रकाशने । तथामुष्मिन् विपद्यमाने जातुचिदपि विचलतामनुकुर्वाणे शरीरेऽतीव विपद्यते बहु कष्टमनुभवति तदहो विस्मयस्थलमत्र किन्नु रहो गुह्यतत्त्वमित्यहं न जाने । अथवाऽत्र किन्नु रहः किमपि तत्वं नास्तीत्यहं जानेऽनुभवामि । अनुप्रासोऽलंकारः ॥५९॥ धमकसंवाहि किलाभिजल्पन् विनिर्वहत्यात्तकलत्रकल्पम् । ज्वलत्कुटीरोपममेतदङ्गमापत्क्षणे मोक्तुमुदत्यसङ्गः ॥६०॥ श्रमैकसंवाहीत्यादि-असङ्गः संयतो जन आत्तं स्वीकृतं च तत्कलत्रं स्त्री वा दुर्गस्थानं वा 'कलत्रं भूभुजां दुर्गस्थानेऽपि श्रोणिभार्ययोः' इति विश्वलोचने, तस्य कल्पो विधिरिव विधिर्यस्य तदेतदङ्गं श्रमैकसंवाहि यत्किञ्चिच्घ्रमदानं दत्त्वा निर्वहनयोग्यं किलाभिजल्पन संवदन् पुनरापक्षणे विपत्तिवेलायामेतन्मोक्तु तत्कालं त्यक्तुमुदेति तत्परस्तिष्ठति ज्वलत्कुटीरोपमं दह्यमानकुटीरसदृशमिति किलोपमालंकारः ॥६०॥ अनन्यमान्या स्वगुणैकधान्या मुनेः सदा न्यायपथानुमान्या। जनस्य नीतिः परतः प्रणीतिः सभीतिरास्ते विकलप्रतीतिः ॥६॥ अनन्यमान्येत्यादि-मुनेर्नीतिः परिणतिस्सा सवा न्यायस्य समौचित्यस्य यः पन्था मार्गस्तेनानुमान्या समावरणीयाऽथवानुमानविषयाऽनुमेया भवति तथा स्वस्यात्मनो यो गुणो निर्ममत्वादिः स एव धान्यं बीहिर्भक्षणीयमन्नं यत्र साऽनन्यमान्या परमादरणीया भवति, किन्तु जनस्य नीतिः सा परतः प्रणीतिः पराधीनजीवनाऽतः सभीतिर्भयान्विता तथा विकलाऽपरिपूर्णा प्रतीतिः परिज्ञानं यत्र सा भवति । अनुप्रासोऽलंकारः ॥६१॥ में निरन्तर निमग्न रहता है । यदि कदाचित् यह नष्ट होनेकी स्थितिमें होता है, तो अत्यन्त कष्टका अनुभव करता है । आश्चर्य है कि इसके रहस्य-गूढ तत्त्वको मैं नहीं जान पा रहा हूँ ॥५९॥ ___अर्थ-परन्तु परिग्रहसे रहित मुनि इस शरीरको 'यह खेदको ही उत्पन्न करनेवाला है' ऐसा कहते हुए स्वीकृत स्त्री अथवा दुर्गम स्थानके समान उसका निर्वाह करते हैं, अर्थात् भोजन-पान देकर उसकी रक्षा करते हैं, परन्तु विपत्तिका अवसर आनेपर-मृत्युका प्रसङ्ग उपस्थित होनेपर उसे जलती हुई झोपड़ीके समान छोड़नेके लिये तत्पर रहते हैं ॥६०॥ ____ अर्थ-मुनिकी परिणति सदा न्यायमार्गका अनुसरण करनेवाली तथा स्वकीय गुणरूपी धान्यसे सहित होती है, अतः वह परमादरणीय है, परन्तु संसारी जनकी नीति परके अधीन होती है, अतः वह भयसे सहित और अपूर्ण ज्ञानवाली होती है ॥६१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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