Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 635
________________ जयोदय- महाकाव्यम् [ ५५-५६ स्तव इत्यादि -- यद्यपि अङ्गिनः शरीरधारिणो मनः कञ्चनमेव काञ्चनमिति कृत्वा स्वार्थे कः प्रत्ययस्तस्य अञ्चनाय सुवर्णस्यैव स्तवनाय प्रवर्तते, किन्तु समताया आश्रमे समाश्रमे त्यागमार्गे तु पुनरथ बोधस्य केवलशुद्धात्मनो ज्ञानस्य स्तवो वचसा विश्लाघनं भवति यतः, स एव बोधो निरीहतायाः समताया हेतुः कारणं समस्ति । यो वा जनो यदर्थी यत्प्रयोजनवान् भवति स तदभ्युपायस्तस्मै यत्नकरो भवतीत्यर्थान्तरन्यासः ॥ ५४ ॥ सम्पादयाम्यद्य तदेतदादावपूर्ण मस्ताि अहो प्रमादात् । तत्कृत्यमित्थं च तदित्युपायपरो नरोऽयं भविता सुखाय ॥५५॥ ११२४० सम्पादयामीत्यादि - अयं नरः सुखाय समाश्वासनहेतवेऽहं किलाद्यादौ तदेतत्सम्पादयामि यदस्ता पूर्वस्मिन् दिने प्रमादादालस्यवशादपूर्ण मसम्पन्नमेवाहो संस्मरणे तथा चाद्याधुना तत्कृत्यं करणीयमास्ते तत्त्वित्थं कृतमेवेत्युपायपरो भवितास्ति निरन्तरमेतादृगेव चिन्तयति ॥५५॥ यतिः सदैवं यततेऽनवद्यपथे प्रथावानहमद्य सद्यः । त्यजामि यद्धयः स्खलितं ह्यसां श्वस्तावदास्ते रुचिकृत्तु मह्यम् ॥५६॥ यतिरित्यादि - यतिस्तु यो भवति सोऽनवद्यपथे पापापेते वर्त्मनि प्रथावान् प्रगतिवान् भवति, ततः स सदैवंप्रकारेण यतते प्रयत्नं करोति यदहमद्य सद्यस्तत्कालमेव तत्त्यजामि परिहरामि यत्किञ्चित्किल ह्यः पूर्वस्मिन् दिने स्खलितं प्रमादादन्यथाचरितं हि यस्मात्कारणान्मह्यं तदरुचिकृत् किल हानिकरमेवातः श्वस्तावदनागतदिवसपर्यन्तमसह्यमास्ते । अनुप्रासालंकारः । प्रतिक्रमणप्रकारोऽयम् ॥५६॥ अर्थ संसारी जीवका मन सुवर्णकी स्तुतिके लिये होता है, परन्तु समताके आधारभूत मुनिमें शुद्धात्मज्ञानका स्तवन होता है, क्योंकि वह निरीहता-नि:स्पृहताका हेतु है । ठीक ही है, क्योंकि जो मनुष्य जिस वस्तुका इच्छुक होता है, वह उसीके लिये उपाय करता है ॥ ५४ ॥ अर्थ -- संसारी प्राणी निरन्तर ऐसा विचार करता रहता है कि आज मैं पहले यह कार्य करता हूँ, कल यह कार्यं प्रमादसे अपूर्ण रह गया था और आज यह कार्य इस तरह करने योग्य है। इस प्रकार यह मनुष्य सुखके लिये उपाय करनेमें तलर रहता है ||५५|| अर्थ - मुनि निरन्तर पापरहित मार्ग में प्रगति करते हुए इस प्रकार प्रयत्न करते हैं कि आज मैं इस कार्यको शीघ्र ही छोड़ता हूँ । पूर्वदिन प्रमादसे जो विपरीत आचरण हुआ था, वह मेरे लिये अरुचिकर है उसका मैं पश्चात्ताप करता हूँ और आगामी दिवस पर्यन्त वह कार्य मेरे लिये असह्य है ॥५३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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