Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 634
________________ ५२-५४ ] सप्तविंशतितमः सर्गः १२३९: नाम्नि धृतावधानो लब्धोत्साहः सोऽबुद्धि पूर्व चाप्यागोऽपराध बुद्धि पूर्व तु करोत्येव न,. किन्त्वकुर्वतोऽपि यदस्य जातं तत् पुनः संशोधयति तदर्थ प्रतिक्रमणं करोतीत्यर्थः ॥५१॥ प्रयोजनाधीनकवन्दनस्तु विलोकते क्वापि जनो न वस्तु । मूर्नाऽलिवद्योऽथ रतेष्टिदीनः स्त्रियाः पदाब्जद्वि तये दिलीनः ।।५२।। प्रयोजनेत्यादि-जनः संसारी लोकः प्रयोजनमधीनं यस्य स चासो क आत्मा तस्यैव वन्दनाय यस्य स भवति, यत स्वप्रयोजनस्य सिद्धि वीक्षते तमेवाभिवन्दतेऽतः स वस्तु क्वापि न विलोकते । केवलं रतस्य स्त्री सङ्गस्य या किलेष्टिः समभिलाषा तया हेतुभूतया दीनो भवति ततो मूर्ना मस्तकेन योऽसौ स्त्रियाः पदाब्जयोः चरणकमलयोद्वितयेऽथालिवद् भ्रमरवद्विलीनो भवति ॥५२॥ यतिस्तु तत्त्वैकमतिजिनादिष्वास्ते गुणाधीनतयाऽभिवादी। आदीनवाऽदीनतया प्रसादिष्वेकान्ततः स्वान्त इहाप्रमादी ॥५३॥ यतिरित्यादि-हे आदीनव ! हे संक्लिष्ट ! 'आदीनवस्तु दोषे स्यात्परिक्लिष्टदुरन्तयोः' इति विश्वलोचने । यतिः संयमी तु पुनस्तत्वैकमतिरात्माधीनबुद्धिरास्तेऽतः स स्वान्ते स्वमनसि किलेहाप्रमादी पापाचारविहीन एवैकान्ततो नियमत आस्तेऽतः सोऽदीनतया दीनतातो दूरवर्तितया प्रसादिषु प्रसन्नताधारकेषु जिनादिष्वहत्सिद्धादिपञ्चपरमेष्ठिषु गुणाधीनतया गुणानुरागवृत्त्याऽभिवादी तेषामभिवन्दनकः । अनुप्रासोऽलंकारः ॥५३।। स्तवोऽथ बोधस्य समाश्रमे तु निरीहतायाः स समस्ति हेतुः । मनोऽङ्गिनः काञ्चनकाञ्चनाय यो वा यदर्थी स तवभ्युपायः ॥५४॥ उपयोग लगाते हैं, इष्ट और अनिष्टके विकल्पको दूर करते हैं तथा अबुद्धिपूर्वक होने वाले अपराधकी भी शुद्धि करते हैं, अर्थात् प्रतिक्रमण करते हैं ।।५।। ___ अर्थ-जो अपना प्रयोजन सिद्ध करनेके लिये आत्माकी वन्दना करता है, वह अपने प्रयोजनके अतिरिक्त कहीं भी किसी वस्तुको नहीं देखता है। ऐसा संसारी प्राणी स्त्रीसमागमको इच्छासे दीन हुआ मस्तकसे स्त्रीके चरण-कमल युगलमें भ्रमरके समान विलीन-आसक्त रहता है ॥५२॥ ___ अर्थ-हे संक्लिष्ट ! हे संसारपरिभ्रमण खिन्न ! यतश्च संयमी-मुनि तत्त्वैकमति-आत्माधीन बुद्धि होता है, अतः वह अपने मनमें प्रमाद-पापाचारसे रहित होता हुआ नियमसे दीनतासे दूरवर्ती होनेके कारण प्रसन्नताके धारक अर्हन्त आदि पञ्च परमेष्ठियोंकी ही वन्दना करता है । वह उन्हींके गुणोंके अधीन रहता है ।।५३|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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