Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 633
________________ :१२३८ जयोदय-महाकाव्यम् [४९-५१ अनल्पतरूपे तलुनस्त्रियामामजीकरोतीव तु कान्तयाऽमा । जयत्ययं शर्करिले शयानः किलैकपाश्र्वेन चिदेकतानः ॥४९॥ अनल्पतल्प इत्यादि-तलुनो युवा संसारी स तु कान्तया स्ववनितयाऽमा सार्द्धमनल्पं बहुमूल्यं तूलपुष्पोपगादियुतं यत्तल्पं पल्यङ्क तस्मिन् शयानस्त्रियामां रात्रिमङ्गीकरोति बहु मन्यते, किन्त्वयं संयमी स चिद् आत्मानुभवकारिणी बुद्धिस्तया सहकतानोऽनन्यवृत्तिः सन् किलैकेन पावेन नोत्तानोऽनुत्तानो वा सन् शरिले कंकरप्रस्तरव्याप्ते भूतले शयानस्तां जयति व्यत्येति ॥४९॥ स्वमास्यमादर्शतलेऽभिपश्यंस्तल्पोस्थितो नैश्यरहस्यमस्यन् । प्रवर्तते सज्जनतासमक्षमसौ मनुष्यो व्यवहारदक्षः ॥५०॥ स्वमास्यमित्यादि-असौ व्यवहारे गृहस्थाश्रमे दक्षः सुचतुरो मनुष्यस्तल्पाच्छय्यातलादुत्थितस्तल्पोत्थितः स्वमास्यं मुखमादर्शतले दर्पणप्रान्तेऽभिपश्यन् अवलोकयन् नैश्यं निशासम्बन्धि यद्रहस्यं गोप्यं वस्तु तदेवंरीत्यास्यन् निराकुर्वन् समीचीना गुरुवर्गपरि-. पूर्णा या जनता तस्या समक्षं समुद्देशं प्रवर्तते समायाति । अनुप्रासोऽलंकारः ।।५०॥ साम्ये समुत्थाय धृतावधान इष्टेऽप्यनिष्टेऽपि कृतावसानः । अबुद्धिपूर्वं च समुत्थमागः. संशोधयत्यध्वविदस्तरागः ॥५१॥ साम्य इत्यादि-अध्वविदपवर्गमार्गज्ञाताऽस्तरागो विषयेष्वनुरागरहितः समुत्थाय निशावसाने प्रसन्नतापूर्वकं स्थितो भूत्वाऽसाविष्टे मनोऽनुकूलेऽप्यनिष्ट तत्प्रतिकूलेऽपि कृतं स्वीकृतमवसानमभावो येन स इष्टानिष्टकल्पनारहितः, किन्तु साम्ये समभावे सामायिक भावार्थ-दो बार उत्पन्न होनेसे दांतोंको द्विज कहते हैं और गर्भनिःसरण तथा दोक्षाधारणकी अपेक्षा मुनि भी द्विज कहलाते हैं ।।४८।। ___ अर्थ-युवावस्थासे सहित संसारी जीव अपनी स्त्रीके साथ बहुमूल्य पलङ्ग पर शयन करता हुआ रात्रिको बहुत मानता है, परन्तु एक आत्मबुद्धिमें संलग्न मुनि कंकर-पत्थर तथा धूलिसे युक्त पृथिवो तलपर एक करवटसे शयन करते हुए रात्रिको व्यतीत करते हैं ।। ४९।। ___ अर्थ-व्यवहार-गृहस्थाश्रममें चतुर मनुष्य शय्यासे उठकर दर्पण तलमें अपना मुख देखता हुआ रात्रि सम्बन्धी गोपनीय वृत्तको दूरकर सज्जनोंके समक्ष प्रवृत्त होता है, अर्थात् गुरुजनोंके बीच आता है ।।५०।। अर्थ-मोक्षमार्गके ज्ञाता रागरहित मुनि प्रातःकाल उठकर साम्यभावमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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