Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 615
________________ १२२० जयोदय-महाकाव्यम् सौधायतेऽयं समयः सवपाता पुराकृतिस्ते वृतिरेव जाता। ध्वजत्यजत्वप्रकृतिः कृतिन ते धियोऽधियोगं स्फुटतां यजन्ते ॥३॥ ___ सौधायत इत्यादि-हे कृतिन् ! विचारकारिन् ! तेऽयं समयः स्वपाता स्वरक्षाकरोऽतः सौधायतेऽमृतपूरक इव भवति, पुराकृतिर्जन्मकालादारभ्याद्यपर्यन्ता या कृतिस्साऽस्या वृतियाख्येव जाता । अथवाऽसौ समयः सौधायते प्रासाद इव भवति पुराकृतिश्च सास्य वृतिरिव वाट इव चाद्य तेऽजत्वप्रकृतिरमरभावो ध्वजति स्फूतिमेति षियश्च ते बुद्धयोऽधियोगं ध्यानमधिकृत्य स्फुटतां यजन्ते स्वीकुर्वन्ति । अनुप्रासोऽलंकारः ॥३॥ समाः समात्तं किमु विस्मरन्तु भुक्तस्य युक्तं न विवेचनं तु। भविष्यते स्फातिमितस्य कालः फलत्यनल्पं किमु नो नृपाल ॥४॥ समा इत्यादि-हे नृपाल ! समाः सम्माननीया जनास्ते समात्तं श्रेष्ठत्वेनातं प्राप्त यत् तत् किमु विस्मरन्तु ? नैव विस्मरन्तु, किन्तु तस्य सदुपयोगं कुर्वन्तु । यद् भुक्तं व्यतीतं तस्य विवेचनं मयैतत्कृतं तन्न कृत्वा तत्कृतं स्यात्तदा भद्रमित्यादिरूपतयाऽनुशोचनं तु गतस्य सर्पस्य घृष्टिकुट्टनवद्युक्तं न भवति । भविष्यतेऽनागताय स्फाति विचारशीलतामितस्य जनस्य कालोऽनल्पं बहुलं किं नु फलति ? अपि तु फलत्येवेति काकुः ॥४॥ दृष्टा प्रवृत्तिः खलु कर्मकृत्तिस्तत्त्वं निवृत्तिर्जगते प्रवृत्तिः । भवेदवेदः परथा निवेदः प्रवेदनेनास्तु भवानखेदः ॥५॥ दृष्टेत्यादि-हे नपाल ! या खलु प्रवृत्तिः स्त्रीपुत्राविषु बाह्येषु वस्तुषु सा खलू कर्मणां दुरितानां कृत्तिस्त्वचा, तनुरिति यावत्, किन्तु निवृत्तिरेव तेभ्योऽपसरणमेव तत्त्वं अर्थ-हे कृतिन् ! हे विचारशील ! तुम्हारा यह समय आत्मरक्षाकारी है, अतः अमृतपूरके समान है और जन्मसे लेकर अब तकका तुम्हारा कार्य उसकी व्याख्या ही है अथवा तुम्हारा यह समय सौध-प्रासादके समान है, तुम्हारा अबतकका कार्य उसकी बाड़ी है। तुम्हारी अजत्वप्रकृति-अमरस्वभाव उसकी ध्वजा है और तुम्हारी ध्यानविषयक बुद्धियाँ स्फूर्तिको स्वीकृत कर रही हैं ॥३॥ ____ अर्थ-हे राजन् ! सम्माननीय मनुष्य अच्छी तरह प्राप्त हुई वस्तुको क्या विस्मृत कर दें ? अर्थात् नहीं, वे उसका सदुपयोग करें। जो बीत चुका है उसका विवेचन करना उचित नहीं है। भविष्यत्के लिये विचार करने वाले मनुष्यका काल क्या बहुत भारी फल नहीं देता है ? अवश्य देता है ॥४॥ ___ अर्थ-हे राजन् ! स्त्रीपुत्रादि बाह्य पदार्थों में जो प्रवृत्ति देखी गई है, वह पाप कर्मोको त्वचा है, उनसे निवृत्ति होना ही तत्त्व है-यथार्थ बात है, प्रवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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