Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 625
________________ १२३० जयोदय-महाकाव्यम् [२९-३० हदि चित्ते च सा समिच्छा शरीरमपीदं मे नास्ति किलेदशी मनोभावना भवति, विहारश्च तस्य मुनेर्दिवा दिवस एव स्यात्तथा च दलितेनान्यैर्मनुष्यपशुप्रभृतिभिरवगाहितेनावना पथा चारो विचरणं भवति तथा गमनसमये पुरः सम्मुखे पथि वमनि छादिता प्रसारिता चक्षुष इच्छा वृत्तिरितस्ततोऽनवलोकनरूपेति यावत् । अनुप्रासोऽलंकारः ॥२८।। इतस्ततो भो परिमार्जनीवाऽविदग्धनुः सावगुणाजिनी वाक् । वेश्येव विज्ञस्य पुनर्मनुष्यान् सम्मोहयन्ती भूतिकामनु स्यात् ॥२९॥ इतस्तत इत्यादि-भो भव्य ! अस्मिन् भूभागेऽविदग्धोऽनभिज्ञो यो ना मनुष्यस्तस्य या वाग् वाणी सा परिमार्जनीवावकरसंग्राहिकेवावगुणाजिनी दुर्गुणवाहिका भवति, विज्ञस्य जनस्य च पुनः सा वेश्येव गणिका तुल्या मनुष्यान् सम्मोहयन्ती सती केबलं भृतिकामनु जीविकार्जनप्रयोजना स्यात् । उपमालंकारः ॥२९॥ । मुनिस्तु मौनं मनुतेऽजनोनं क्वचिद्धितार्थ स्वमुखावघोनम् । निस्सारयेद्रत्नमिवातियत्नपुरस्सरं प्रत्नपदं विनूस्नम् ॥३०॥ मुनिरित्यादि-मुनिस्तु प्रथमतस्तु मौनमेवाञ्जनोनं कलङ्कविहीनं पवित्रं मनुते । क्वचित्कदाचिद्वक्तुमेव युक्तं भवति तत्र हितार्थ विश्वोपकारकं पुनरघोनं पापर्वाजतं प्रत्नानां पुराणपुरुषाणां पदं प्रतिष्ठा यस्मिस्तत् पुराणपुरुषसम्मतं विनत्नं नवीनतारहितं चार्थात् स्वकपोलकल्पनाहीनं तदेतदपि चातियत्नपुरस्सरं यथा स्यात्तथा रत्नमिव स्वमुखान्निःसारयेत् । सैषा भाषासमितिः । उपमा चानुप्रासश्चालंकारः ॥३०॥ होता है । विहार कालमें उनके साथ मयूरपिच्छ और कमण्डलु रहता है । हृदयमें लोककल्याणकी भावना अथवा विरक्तिका परिणाम होता है और मार्गमें आगे चक्षुको निष्प्रमाद प्रवृत्ति होती है, अर्थात् इधर-उधर देखनेकी प्रवृत्तिका अभाव होता है ॥२८॥ ____ अर्थ हे भव्य ! अनभिज्ञ-अज्ञानी मनुष्यकी जो वाणी है, वह इधर-उधर झाड़ने वालो बुहारीके समान दुर्गुणोंका संग्रह करनेवाली होती है, पर विवेकी मनुष्यकी वाणी वेश्याके समान मनुष्योंको मोहित करती हुई प्रयोजनके अनुसार ही प्रवृत्त होती है, अर्थात् निष्प्रयोजन नहीं होती ॥२९।। __ अर्थ-प्रथम तो मुनि मौन को ही निष्कलंक मानते हैं, यदि कहीं बोलनेका अवसर आता है तो ऐसे वचन मुखसे निकालते हैं जो हितकारी हों, पापसे रहित हों, यत्नपूर्वक बोला गया हो, पुराणपुरुषोंके वर्णनमें तत्पर हो और नूतनतासे रहित हो, अर्थात् कपोलकल्पित कल्पनाओंसे रहित हो और रत्लकी तरह मूल्यवान् हो ॥३०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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