________________
४०-४१ ]
षड्विंशः सर्गः
जनलोचनशुक्तिसन्ततो विदिते स्वातिहिते महीपतौ । श्रुतयाऽश्रुतया किलाभवदिह मुक्ताफलतास्रवो नवः ॥४०॥ जनलोचनेत्यादि - महीपतौ जयकुमारे स्वस्यैवातिहितमन्यानुपेक्ष्यात्मसाधनं यस्य तस्मस्तादृशि विदिते सति स्वातिनामनक्षत्रवद्धिते सति जनानां लोचनान्येव शुक्तयो मुक्तामातरस्तासां सन्ततौ परम्परायामिह श्रुता विख्याताऽथवा स्त्रुता समुद्भूता याश्रूण नयनजलानां समूहोऽश्रुता तथा नवो नवीनो मुक्ताफलताया मौक्ति कौघस्य यद्वा जन्म. सफलताया आश्रवः प्रतिज्ञालेशोऽभवत् । अनुप्रासो रूपकश्चालंकारः ||४०|
११८९.
अपरायपरायणस्तथा
गजवत् सजवं विबन्धनः स्फुरिताशो दुरितानिबन्धनः । वनमानन्दनमभ्यगात् पथा ॥ ४१ ॥ गजवदित्यादि- - स उपर्युक्तो महीपतिरपरो योऽसावाय: स्वाधीन वृत्तिभावस्तस्मिन् परायणो निरतस्तथा दुरितस्य दुश्चेष्टितस्य निबन्धनं हेतुत्वं नास्ति यस्य स दुरितानि - बन्धनस्तथा स्फुरिता विकासमिताऽऽशा स्वाभिलाषा यस्य सः, विबन्धनः बन्धनेन गार्हस्थ्यरूपेण निगडरूपेण च रहितो गजवत् करी भवति यथा तथाऽसौ पथा मार्गेण सजवमविलम्बं यथा स्यात्तथाऽऽनन्दनं प्रसन्नतादायकं वनमभ्यगाज्जगामेत्युपमा चानुप्रासश्चालंकारः ॥ ४१ ॥
अर्थ -- राजा जयकुमार जब स्वातिहित - आत्मसाधना रूप हित (पक्षमें स्वाति नक्षत्र) रूपसे प्रसिद्ध हुए तब जनसमूह के लोचनरूपी सीपोंके समूहसे जो समूह निकल रहा था, उससे मोतियोंका नवीन निःसरण हो रहा था ।
भावार्थ - राजा जयकुमारके गृहत्यागके लिये उद्यत होने पर लोगोंके नेत्रोंसे जो आँसू टपक रहे थे, वे ऐसे जान पड़ते थे मानों सीपोंसे मोती ही निकल रहे हों, क्योंकि स्वाति नक्षत्र में पानीकी जो बूंद सीपमें पड़ती है वह मोती रूपमें परिणत हो जाती है । राजा जयकुमार स्वयं स्वातिहित अपना ही अत्यधिक हित चाहने वाले ( पक्ष में स्वाति नक्षत्ररूप ) थे, मनुष्योंके नेत्र सीप थे और उनसे निकलने वाली आँसुओंकी बूँदें मोती थे ||४०||
अर्थ - स्फुरिताशः - जिनकी दीक्षाधारण रूप अभिलाषा पूर्ण रूपसे विकसित हो चुकी है, जिनकी प्रवृत्ति पापचेष्टाओंका कारण नहीं हैं, जो स्वाधीन वृत्तिकी प्राप्ति में तत्पर हैं और जिनका गृहस्थी सम्बन्धी बन्धन टूट चुका है ऐसे जयकुमार बन्धनरहित हाथीके समान शीघ्र ही योग्य मार्ग से आनन्ददायक वनकी ओर चल पड़े ॥ ४१ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org