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अष्टादशः सर्गः
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वृत्र नाम दानवं जयकुमारपक्षे वृत्रंशत्रहन्तीति तत्तामनुभवन् स्वीकुर्वन्, सुमनसां कुसुमानां देवानां मनस्विजनानां वानुशास्ता । निशाया अन्तोऽभावो निशान्तः प्रभातकालस्तस्य समवायधरः, सुरेशपक्षे नितरां शान्ता निशान्तास्तेषां शान्तप्रकृतिकलोकानां समवायधरः, जयकुमारपक्षे निशान्तानां भवनानां समवायधरः। चित्रादिकैर्नक्षत्र रुत्कलितो योऽसंग्रहश्चैत्राविमासरूपस्तद्वान्, सुरेशपक्षे चित्रानाम स्वर्गवेश्या सादिर्यासां ताभिरुत्कलितसंग्रहवान्, जयकुमारपक्षे चित्राणि नानाप्रकारकाणि प्रतिबिम्बान्यादौ येषां तैः शयनासनदर्पणपरिकरैरुत्कलितः संग्रहस्तद्वान् ॥७४॥ सत्संगमापकरणो द्विजराविरोधी
सर्वत्र विभ्रमपरो जडजानुरोधी। स्यूनोऽकुलीन इव गोलकरूपत्वाद्
भो भूमिपाल ! तिमिलक्षणभक्षकत्वात् ।।७।। सदित्यादि-भो भूमिपाल ! स्यूनो नाम सूर्यः, स सतां नक्षत्राणामुत प्रशस्तपुरषाणां सङ्गमस्यापकरणं निराकरणं यत्र सः, द्विजराजश्चन्द्रमसो विप्रस्य वा विरोधी, जडजानां
हैं। यथा-सूर्यके पक्षमें-सूर्य वृत्र-अन्धकारके नाशका अनुभव करता है, सुमनस्-कमल आदि पुष्पोंका अनुशासन करने वाला है, निशान्त-प्रातःकालके साथ समवाय-सम्बन्धको धारण करने वाला है और चित्रा आदि नक्षत्रोंसे प्रकट होनेवाले चैत्र आदि मासोंका संग्रह करने वाला है । सुरेशके पक्षमेंसुरेश वृत्र नामक दैत्यका घात करने वाला है, सुमनस्-देवोंका अनुशासन करने वाला है, निशान्त-अत्यन्त शान्त प्रकृति वाले मनुष्योंके समहका धारकरक्षक है और चित्रा आदि स्वर्गकी अप्सराओंके द्वारा निष्पादित संग्रहसे सहित है । जयकुमारके पक्षमें-जयकुमार वृत्रुओंके घातकपनेका अनुभव करने वाला है, सुमनस-विचारवान् मनुष्य अथवा विद्वानोंका अनुशासन करने वाला है, निशान्त-भवनोंके समूहसे सहित है और चित्र-नाना प्रकारके शयनासन-दर्पण तथा प्रतिबिम्ब आदिके संग्रहसे युक्त है ॥७४।
अर्थ-हे भूमिपाल ! यह स्यूने-सूर्य, अकुलीन-नीचकुलोत्पन्न मनुष्यके समान है । श्लेषालंकार होनेसे सब विशेषण सूर्य और अकुलीनके पक्ष में आयो१. 'स्यूनोऽर्के किरणे' इति विश्वलोचनः । २. अमृते जारजः कुण्डो मृते भर्तरि गोलकः' इत्यमरः । पतिके जीवित रहते जारसे
जो संतान होती है, उसे कुण्ड तथा पतिके मर जानेपर जारसे होने वाली संतान गोलक कहलाती है।
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