________________
८-९ ]
द्वाविंशः सर्गः
चकित आश्चर्यान्वितश्चातको नाम पक्षी भुवने जलविषये तृष्णावान् पिपासासहितोऽभूत्तत्रामुष्याः शरदो घनानामभावोऽपघनत्वं सत् प्रशंसनीयं तदेव हेतुः ||७|
सुप्रसन्नभावेन हसन्ती सदुरोजातोष्मणा लसन्ती । पार्श्वे यस्य पवित्रा वारा सदा स्थितिस्तस्यापतुषारा ॥८॥ सुप्रसन्नेत्यादि - सरोजातयोः कुचयोरूष्मणा तेजसा लसन्ती शोभमाना, सुप्रसन्नभावेन प्रमोदेन हसन्ती स्मितयुतात एव पवित्रा वारा (बाला) नवयौवना यस्य पार्श्वे समीपे तस्य जयस्यापगतस्तुषारो हिमो यस्यास्सापतुषारा स्थितिः परिस्थितिः सदा । अथवा सता विद्यमानेन उरोजातेनाभ्यन्तःस्थेनोष्मणोष्णपरिणामेन लसन्ती या हसन्ती अङ्गारिका पवित्र आवार आवरणं च यत्र सा पवित्रावारा यस्य पार्श्वे तस्यापतुषारा हिमरहिता स्थितिः सदेव ॥८॥
१००९
सापत्रपता यत्र तदैनां जगतां कल्पतरुश्च निरेनाः । नवप्रवालोपादानाय शिशिरश्रियमनुबभूव चायम् ॥ ९ ॥ सापत्रपतेत्यादि - निरेनाः पापहीनो जगतां कल्पतरुर्दानशीलत्वात् सोऽयं जयदेवो यत्र आपवस्त्रायत इति आपत्त्रा तत्र मुख्या पत्त्रपा तस्या भाव आपत्त्रपता, तामेनां सुलोचनां
P
शस्यवृत्ति - प्रशंसनीय चेष्टासे सहित थी । इस शरद् ऋतुको देखकर चातक पक्षी सदा चकित रहता हुआ भुवन - जलके विषय में जो सदा तृष्णावान्पिपासासे युक्त रहता है, इसमें कारण शरद् ऋतुका सदपघनत्व - समीचीन मेघोंका अभाव ही है, अर्थात् शरद् ऋतु में वर्षा योग्य मेघोंका अभाव होनेसे चातक तृषातुर रहता है। तात्पर्य यह है कि सुलोचना शरद् ऋतु रूप थी ॥७॥
अर्थ - प्रमोद भावसे हँसती तथा समीचीन स्तनोंकी गर्मीसे सुशोभित पवित्र वारा (बाला) सुलोचना जिसके पास थी, ऐसे राजा जयकुमारकी स्थिति तुषार - शीतकी बाधासे रहित थी ।
अर्थान्तर —- सुप्रसन्नभाव - प्रज्वलित दशासे युक्त, भीतरकी विद्यमान गर्मीसे सुशोभित और पवित्र आवरणसे युक्त हसन्ती - अँगीठी जिसके पास रहती है, उसकी स्थिति सदा हिमकी बाधासे रहित होती है । भाव यह है कि सुलोचना हेमन्त - शीत ऋतु रूप थी । जिस प्रकार हेमन्त ऋतुमें लोग शीतसे बचने के लिये भीतर स्थित गर्मीसे सुशोभित प्रज्ज्वलित हसन्ती - अँगीठीका उपयोग करते हैं, उसी प्रकार जयकुमार शीत निवारणके लिये सुलोचनाका उपयोग करते थे ॥८॥ अर्थ - पापरहित तथा दानशील होनेसे जगत् के जीवोंके लिये कल्पवृक्षस्वरूप राजा जयकुमारने नवीन सुन्दर बालक प्राप्त करनेके लिये उस समय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org