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५३-५४ ]
द्वाविंशः सर्गः
१०३३
सुधालसत्कृतिमान् जयदेवः भो सुमनसोऽस्ति किन्न मुदे वः । सौवर्णेन हरिद्रा वारा द्वयोपयोगेऽनुराग आरात् ॥५३॥
सुधालसदित्यादि-जयदेवः सोमसूनुः, हे सुमनसो मनस्विनो जना ! देवा ! वा सुधारस्य सदाचारस्य सतो समीचीना या कृतिस्तद्वान्, यद्वा सुधा 'कलई' इति देशभाषायां तद्वल्लसन्ती या कृतिः परमपुनीता क्रिया तद्वान्, देवानां पक्षे तु अमृतं सुधा। एतादृशो जयकुमारो वो युष्माकं मुदे प्रीत्यर्थ किं नास्ति ? किन्त्वस्त्येव । एवं पुनर्वारा (बाला) सुलोचना सा सुवर्णस्य हेम्नः शोभनवर्णस्य च भावः सौवर्ण तेन कृत्वा हरिद्रा हरितो दिशा रातीति हरिद्रा समन्ततः प्रख्यातिमती, अथ च 'हलो' इति देशभाषायां तस्माद् द्वयोपयोगे सुलोचनाजयकुमारयोः परस्परं योगे सम्बन्धे आरात शीघ्रमेवानुरागो बभूव । यथा सुधाहरिद्रयोः संयोगेऽनु अनन्तरमेव रागो रक्तपरिणामो भवति । वक्रोक्तिः श्लेषश्च ॥५३॥ नागदलक्षणमाप्त्वोदारं सुधावाक्तु सा स खविरसारः । द्वयीत्यसी समुदितप्रमाणा मुखमण्डनाथ सत्पुरुषाणाम् ॥५४॥ नागदलक्षणमित्यादि-सा सुधावाग मधुरभाषिणी सुलोचना, स जयकुमारश्च
अर्थान्तर-नावान्ता-जिसके अन्त प्रदेशमें 'ना' है, ऐसी नदी अर्थात् नदीनादीनतासे रहित सुलोचना सुवर्षमय-उदार मनोवृत्ति वाले जयकुमारके द्वारा अच्छी तरह सन्मानको प्राप्त हुई थी। भाव यह है कि बिना मांगे हो जयकुमार उसे सब कुछ देकर संतुष्ट रखते थे, इसीलिये वह अमध्य-मध्याक्षरसे रहित सागर-अर्थात् सार-अतिशय श्रेष्ठ इन जयकुमारको प्राप्त हुई थी, यह उचित ही था ॥५२॥ ___अर्थ-हे सुमनस् ! हे विचारवान् मनुष्यों ! अथवा देवों! यह जयदेव सुधालसत्कृतिमान्-सुधार-सदाचारके अच्छे कार्योंसे सहित है, अथवा सुधा'कलई' के समान सुशोभित उज्ज्वल कार्योंसे सहित है अथवा देवरूप होनेसे सुधा-अमृतके उत्तम कार्योंसे सहित है, अतः किं वः मुदे न ? आप लोगोंके हर्षके लिये नहीं है अर्थात् अवश्य है। और यह वारा (बाला) सुलोचना सौवर्ण-स्वर्ण जैसे वर्णसे हरिद्रा-दिशाओंमें ख्यातिको प्राप्त है अथवा सुवर्ण जैसे पीले वर्णसे हरिद्रा-हलदी रूप है, अतः दोनोंका सम्बन्ध होनेपर शीघ्र ही अनुराग-स्नेह उत्पन्न हुआ इसमें आश्चर्य क्या है ? अथवा कलई और हलदीके मिलनेसे शीघ्न ही राग-लाल रङ्ग उत्पन्न हो जाता है, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ॥५३॥
अर्थ-सुलोचना सुधावाक्-अमृतके समान मधुर भाषिणी थी और
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