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१०१४ जयोदय-महाकाव्यम्
[१७ तम्, मदनस्य कामस्याभ्रपादपस्य च विकासमनु समीपं विलसन्तमवनौ पृथिव्यां वसन्तं निवसन्तं वसन्तमृतुमिव दारसारं स्त्रीरलं प्राप ॥१६॥
शर्वरीति मदुचलना सालंचक्रे विस्तृतकरं नृपालम् । भास्वन्तं भुवि वेशश्चायं ज्येष्ठो जडतापकरणाय ॥१७॥ शर्वरीत्यादि-शर्वरी युवतिः, सुलोचनेति यावत् । सा मृदू कोमलो चलनी चरणो यस्यास्सा तथा शर्वरो रात्रिः सा च मृदु स्वल्पं चलनं यस्यास्सा, नपालं जयकुमार भास्वन्तं शोभनीयं सूर्य च, विस्तृतौ करौ हस्तौ यस्य तं पक्षे विस्तृताः कराः किरणा यस्य है, उसी प्रकार स्त्रीरत्न भी कौतुकातिशयधर-प्रमोदके अतिशयको धारण करनेवाला था और जिस प्रकार वसन्त अनुमदनविकास-आम्रवृक्षके विकाससे सहित होता है, उसी प्रकार स्त्रीरत्न भी अनुमदनविकास-कामदेवके विकाससे सहित था ।।१६।। ____ अर्थ-इस प्रकार मृदुचलना-कोमल चरणोंवाली शर्वरी-सुलोचना युवतिने विस्तृतकर-दीर्घबाहु और भास्वन्तं दीप्तियुक्त राजा जयकुमारको विभूषित किया। पृथिवीपर यह प्रकार जडता-मूर्खताके अपकरण-दूर करनेके लिये ज्येष्ठ-श्रेष्ठ प्रकार माना जाता है, अर्थात् स्त्री पतिके अनुकूल रहे इससे जड़ता-धृष्टता नष्ट होती ही है।
अर्थान्तर-मृदुचलना-मन्द चालवाली, स्वल्प परिमाणवाली शर्वरी-रात्रिने विस्तुत कर-दीर्घ किरणों वाले भास्वन्तं-सूर्यको अलंकृत-विभूषित किया, यह प्रकार पृथिवीपर जडतापकरणाय-मूर्खता प्रकट करनेके लिये ज्येष्ठ-सबसे बड़ा प्रकार है, क्योंकि 'रात्रि सूर्यको अलंकृत करे' यह कहना अत्यन्त विरुद्ध है। अथवा ड और ल में अभेद होनेसे जलतापकरणाय-पानीको संतप्त करनेके लिये ज्येष्ठका महीना है, अथवा जलता-जलस्वभावको नष्ट करनेके लिये ज्येष्ठमास है, अथवा जड-अत्यधिक ताप-गर्मी उत्पन्न करनेके लिये ज्येष्ठका महीना है, अथवा शर्वरी-रात्रिने सूर्यको अलंकृत-समाप्त किया, ऐसा अर्थ करनेसे विरोधका परिहार हो जाता है।
भावार्थ-सुलोचना ग्रीष्म ऋतुके समान थी, क्योंकि जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतुमें रात्रि मृदृचला-स्वल्प परिमाण होती है, उसी प्रकार सुलोचना भी मृदुचलना-कोमल पैरवाली थी। जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु विस्तृतकर-विस्तृत किरणों वाले भास्वन्तं-सूर्यको अलंकृत करती है, उसी प्रकार सुलोचना भी विस्तृतकरं भास्वन्तं नृपालं-दीर्घबाहु एवं देदीप्यमान राजाको अलंकृत करती थी और १. 'शर्वरी तु त्रियामायां हरिद्रायोषितोरपि' इति विश्व० ।
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