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जयोदय-महाकाव्यम्
[ ३९-४०
वह्निना स्वेदनं किन्तु तस्याः सुलोचनाया यदपाङ्गः कटाक्षोऽङ्गहीनश्च समुदियायाभ्युदयं प्राप तदा स कण्टकितं रोमाञ्चयुक्तं कण्टकपूर्ण चाङ्गं यस्य स तादृशोऽभूत् तदत्र चित्रमाश्चर्यविषयोऽपाङ्गेन हेतुना कण्टकसम्पत्तेरभावात् ॥ ३८||
१०२६
स विटपभावमवाप यदा तु लताभूयमालिलिङ्ग सा तु । मोदमन्दिरे तस्मिन् बाला दीपशिखेवाह्लादरसाला ॥३९॥
स विटपभावमित्यादि - स जयकुमारो यदा तु पुनवटपभावं कामिशिरोमणितां यद्वा वृक्षशाखा समूहतामवाप तदा सा लताभूयं यथा स्यात्तथालिलिङ्ग लतावदालिङ्गनपरायणाभूत् । तस्मिन् जयकुमारे मोदस्य मन्दिरे शर्मनिवासस्थाने सा दीपशिखेवाह्लादने रसाला परिपूर्णा जाता ||३९||
खगतामाप यदा सुलक्षणी सहसैवासीत् सापि पक्षिणी ।
तडिल्लतालडूरणायेव
सा यदि मुविरोऽभूज्जयदेवः ॥४०॥ खगतामित्यादि - यदा स सुलक्षणी शोभनलक्षणसंयुक्तः खगतामाकाशगामितामापाथवा तु खगतां पक्षिभावत्वं प्राप तदा सापि पक्षिणी तत्पक्षवती वा सहसैवासीत्, यदि च पुनर्जयदेवो मुदः स्थानं मेघो वाभूत्तदा सालङ्करणाय तडिल्लताभूदिति ॥४०॥
थी, इसमें आश्चर्य नहीं था, क्योंकि अग्निके सम्बन्धसे मक्खनका पिघल जाना उचित ही है, परन्तु जब सुलोचनाका अपाङ्ग - कटाक्ष ( पक्ष में अङ्गहीन) उदित होता था तब कुमारका शरीर कण्टकित - रोमाञ्चित अथ च काँटोंसे युक्त हो जाता था, यह आश्चर्यकी बात थी । क्योंकि अङ्गहीन व्यक्तिके द्वारा कांटों का विस्तार करना सम्भव नहीं है ||३८||
अर्थ - जब राजा जयकुमार विटपभाव- श्रेष्ठ कामीपनको अथवा वृक्षशाखासमूहपनको प्राप्त होते थे तब सुलोचना लताके समान उनका आलिङ्गन करती थी और जब वे हर्षमन्दिर बनते थे तब वह दीपशीखाके समान आनन्ददायिनी होती थी ।
भावार्थ - यदि जयकुमार वृक्षकी शाखा थे तो सुलोचना लता थी और हर्ष मन्दिर थे तो यह उसे प्रकाशित करनेके लिये दीपशिखा थी ||३९||
अर्थ- - जब उत्तम लक्षणोंसे युक्त जयकुमार खगता - आकाशगामिता अथवा पक्षिताको प्राप्त होते थे तो सुलोचना भी पक्षिणी- उनके पक्षसे सहित अथवा पक्षिणी हो जाती थी और यदि जयकुमार मेघ होते थे तो यह उसे अलंकृत करनेके लिये बिजली जैसी हो जाती थी ||४०||
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