________________
जयोदय- महाकाव्यम्
[ ६५ ६७
पुरसीम्नीत्यादि -- पुनरय पदातयः पादचारिणो जनास्ते पदाञ्चौ स्वस्याधोवस्त्रस्योत्कोचितौ प्रान्तभागौ विनियम्योन्मुक्तौ कृत्वा पावरक्षिके उपानही परिशोध्योपसंव्यान कस्योत्तरीयवस्त्रस्य विस्तरं प्रसारं चक्रिरेतराम् । 'ईवेद्विव' इत्ययेन प्रकृतिभावः ॥ ६४॥
९९४
तुरगा अपि ते रजस्वलावनिसंपर्कत आत्तकल्मषाः । श्रमवारिभिरेवमाप्लुताः प्रबभूवुः खलु तत्र विश्रुताः ॥ ६५ ॥
तुरगा इत्यादि - ते विश्रुताः सुप्रसिद्धास्तुरगा अपि रजस्वलायाः पांसुलाया रजोधर्मवत्याश्चावनेः पृथिव्याः संपर्कतः संसर्गादात्तं कल्मषं मलिनत्वं येस्ते तत्रेत्येवं खलु श्रमवारिभिः प्रस्वेदजलैराप्लुताः प्रबभूवुः । उत्प्रेक्षालंकार ॥६५॥
गमानातिशयाज्जनीजनः शिथिलं साम्प्रतमन्तरीयकम् ।
दृढयन्नथवा प्रसाधयन् स्म मुहुः पश्यति लोलया वृशा ॥ ६६ ॥ गमनेत्यादि - बुढयन्नीविनिबन्धं संस्कुर्वन् प्रसाधयन् सुसज्जयन् । शेषं
स्पष्टम् ॥६६॥
पवनप्रतिभाविनोऽप्ययात् परिधूसरिताङ्कशङ्कया । रथराजवितानकं पथीत्यधुना शोधयति स्म सारथिः ॥ ६७ ॥
अर्थ - तदनन्तर नगरकी सीमापर पहुँचते ही पैदल चलने वाले सैनिकोंने अधोवस्त्रके ऊपर चढ़े हुए अंचलको खोलकर तथा जूतोंको साफकर उत्तरीय वस्त्रको अच्छी तरह विस्तृतकर लिया || ६४ ||
भावार्थ - मार्ग में चलते समय बाधक समझकर अधोवस्त्रके जिन अंशोंको ऊँचाकर लिया था, उन्हें नीचाकर लिया, धूलिधूसरित जूतोंको साफकर लिया और उत्तरीय वस्त्रको फैलाकर ठीककर लिया। नगर में प्रवेश करते समय लोग मार्ग की अस्तव्यस्त वेषभूषाको ठीक करते ही हैं ||६४ ||
अर्थ-वे प्रसिद्ध घोड़े भी रजस्वला - - धूलिसे भरी हुई ( पक्ष में रजोधर्मसे युक्त) पृथिवी ( पक्ष में स्त्री) के संसर्गसे आत्तकल्मष - मलिनताको प्राप्त ( पक्ष में पापको प्राप्त) हो गये थे, इसलिये पसीनेके द्वारा मानों उन्होंने स्नान किया था ।। ६५ ।।
अर्थ-दूर तक चलनेके कारण ढीली हुई अधोवस्त्रकी गांठको मजबूत बनाती तथा अधोवस्त्रको सुसज्जित करती हुई स्त्रियाँ चञ्चल दृष्टिसे उसे बार-बार देख रही थी ||६६ ||
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org