Book Title: Jayantiprakaranvrutti
Author(s): Malayprabhsuri, Chandanbalashreeji
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha
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जयन्ती प्रकरणवृत्तिः । गाथा ४|५|६
थेर पञ्चिन्दियबलहाणि पप्प पत्तदोहग्गा । अट्टा कालं खविन्ति पुत्ताइपरिभूया ॥ २२६॥ एगिन्दियतिरियजिया सकायपरकायसत्थमरणाई । संखेयमसंखेयं कालमणंतं च पाविन्ति ॥ २१७|| विगिलिन्दिया वि जीवा जलणजलावायतण्हच्छुहसुसिया । सीयायवऽन्नभक्खणवसओ य लहन्ति मरणाहं ॥२१८॥ नरए नेरइयाणं जीववहारंभपमुहपावेण । तं किंपि हवइ दुक्खं अणोवमं बिन्ति जं मुणिणो ॥ २१९ ॥ जओ भणियं
"अच्छिमीलणमित्तं पि तत्थ सुखं न विज्जए । नारयाण वरायाणं पुव्वकम्माणुभावओ" ॥ २२० ॥ [ ] परमाहम्मियखित्तस्सहावअन्नोन्नजणियतावेहिं । संतत्ता नेरइया सुइरं निवसन्ति निरएसु ॥२२९॥ चविहगइप्पयारे संसारे तत्तओ सुहं नत्थि । तम्हा सिद्धिपूरीए इच्छह वासं सुहावासं ॥ २२२॥ तो सम्माणदंसणरहंगजुयचरणरहरेणित्थ । गच्छह सिद्धिपुरी मुणिवसहाहिट्ठिएण लहुं" ॥२२३॥ जा एवं धम्मक कहेइ सा भगवई पबन्धेण | तावय समुद्ददत्तो भइ निवं अम्ह अच्छरिय त्ति ॥ २२४ ॥ नियगेहे अच्छरियं जं तं पुच्छामि मे न खूणं ति ? | राया वि भणइ पुच्छसु अवराहो नत्थि थोवो वि ॥२२५॥ किं चित्तगओ मोरो हारं गिलइ त्ति ? भगवइ ! कहेसु । कम्मवसेणं गिलइ तं कम्मं कस्स ? सा भइ ॥२२६॥ "मज्झं तित्ति भणित्ता कहइ य सव्वगंसुन्दरी एवं । धणसिरिजम्मम्मि मए भाऊणं चित्तमणुणत्थं ॥ २२७॥ भाउज्जायाहुत्तं रक्खसु नियसाडियं ति जं भणियं । बीयाए सम्मुहं पुण रक्खसु हत्थं ति जं वुत्तं ॥२२८॥
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