Book Title: Jayantiprakaranvrutti
Author(s): Malayprabhsuri, Chandanbalashreeji
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

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Page 416
________________ ३७९ जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा २५।२६ तो एस पाणनाहो मह जेण धणेण जीविएणावि । तेहिं मारिज्जन्ती सव्वहा रक्खिया दीणा ॥१२४॥ तेण वि महेसरेणं समयणपरिहासमहुरवयणेहिं । सुवसीकया सुनिब्भरपेमरसुल्लसियसव्वंगा ॥१२५॥ पत्ताणि वसन्तपुरे वाणिज्जेणं धमोवलम्भेण । भोगुवभोगपराई चिट्ठन्ति सुहेण जा ताव ॥१२६।। एगम्मि दिणे देउलमहत्थपिच्छणयपिच्छणनिमित्तं । जन्तम्मि तम्मि वणिए भणइ इमं धारिणी देवी ॥१२७॥ मा वच्चसु नाह तुमं तुहविरहे जेण ठाउमसमत्था । एकं पि खणं कहमवि हसियं तो तेण वणिएण ॥१२८॥ तो पुच्छइ सा देवी साहस तं सामि केण कज्जेण । हसियं ति तेण कहिए नियचरिए मारिपज्जन्ते ॥१२९।। तो विरत्तचित्ता देवी चिन्तेइ पावकम्मेणं । एएण महापावं ममाणुरत्तेण विहियं ति ॥१३०॥ नीहरिऊण घराओ वच्चइ सा साहुणीण पासम्मि । सुणिऊण धम्मकहं पडिबुद्धा लेइ पव्वज्जं ॥१३१॥ काऊण तवचरणं सम्मं परिपालिऊण सामन्नं । अणसणविहिणा मरिउं सम्पत्ता देवलोगम्मि ॥१३२।। सो वि महुरवणिओ तव्विरहे अट्टरुद्दज्झाणेहिं । नरए पावभरेणं चक्खुन्दियलम्पडो जाइ ॥१३३॥ विहडियफलए मणुयत्तणम्मि पत्ते वि जाणवत्तम्मि । चक्खिन्दियलोहेणं बुड्डन्ति भवन्नवे जीवा ॥१३४॥ चक्षुरिन्द्रियकथा समाप्ता ॥ Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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