Book Title: Jayantiprakaranvrutti
Author(s): Malayprabhsuri, Chandanbalashreeji
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha
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३५४
जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा २३ एगो दमगो तम्मि वि पुव्वज्जियपावपरिणइवसेण । पइदिण भिक्खावित्ती अपत्ततित्ती गयसत्ती ॥३।। अह आगए वसन्ते नवपल्लवराहराइयवणन्ते । आन्दोलियचन्दणदुमलयानिलसुरहियदियन्ते ॥४॥ उज्जाणे गणसिलए गयम्मि उज्जाणियाए रिद्धीए । लीलाविलासललिए परियणकलिए नयरलोए ॥५॥ एसो भिक्खावेलाए दमगो पइमन्दिरं पि हिण्डन्तो । सन्तो दुब्बलदेहो अलहन्तो कवलमित्तं पि ॥६॥ पइगिहपिहियदुवारो एस उयारो वि अज्ज पुरलोओ। संभासगासवियरणपरम्मुहो कहह कह जाओ? ॥७॥ इय पुच्छन्तो जाणियवुत्तन्तो जाइ तम्म उज्जाणे । सो पेच्छइ पुरलोयं कीलन्तं विविहकोलाहिं ॥८॥ अइकन्तभुत्तिवेलो अलद्धभिक्खो खुहाए अक्कन्तो । कोहानलपज्जलिओ चलिओ वेभारगिरिहत्तं ॥९॥ गिरिमेहलमारूढो सिलमुवरिं पाडिऊण चूरेमि । एयं अदिन्नदाणं सव्वं पि जणं विसलमाणं ॥१०॥ इय चिन्तिऊण दमगो महासिलं चालिउं न सक्केइ । तप्पुरओ ट्ठाउं दुट्ठो हिट्ठा खणइ तयणु ॥११॥ तो इसि सिलाचलणे सदं सोऊण सयलपुरलोओ। अवसरइ तप्पएसा सोऊण तीए उवद्दविओ ॥१२॥ एयारिसाण पावाणुबन्धिपावाण दुट्ठजीवाण । अबलत्तं चिय अन्नेसि होइ कल्लाणहेउ त्ति ॥१३॥ सो पुण दमगो पञ्चिन्दियाण जीवाण घायपरिणामो । नरयपुरपहे पहिओ रुद्दज्झाणो लहुं होइ ॥१४॥
दुर्बलिकत्वे द्रमकाख्यानकं समाप्तम् ॥
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