Book Title: Jayantiprakaranvrutti
Author(s): Malayprabhsuri, Chandanbalashreeji
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

Previous | Next

Page 403
________________ ३६६ 10 जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा २५।२६ दिणमणिकिरणकलावे पसरन्ते हुन्ति जह जए पयडा । अत्था तह अत्थेण गुणा वि परिवड्डमाणेण ॥७॥ इच्चाइ चिन्तिऊणं भणिया भद्दा अणेण जह भद्दे ! । अत्थोवज्जणहेउं गच्छिस्सं अन्नदेसम्मि ॥८॥ चिरसंचिया वि लच्छी छिज्जइ जम्हा अणायवयवसओ । निच्चं उल्लिञ्चन्तो कालेणं सुसइ जलही वि ॥९॥ तुमए पुण कायव्वो घरम्मि अप्पम्मि रक्खणापयत्तो । जावऽज्जिऊण अत्थं अहमागच्छामि निविग्घं ॥१०॥ देसन्तरविणिवत्तजोग्गाइ कयाणगाइं घित्तूण । वाणिज्जेणं गच्छइ एसो गरुएण सत्थेण ॥११॥ भद्दा वि घरे चिट्ठइ नेवत्थेणं पउत्थवइयाए । धणसत्थवाहपिययमसुमरणगुणगीयरसियंगी ॥१२॥ अन्नम्मि दिणे तीए दासी सम्पेसिया विवणिमग्गे । किणणत्थं पणियाणं चिरेण पत्ता घरे तत्तो ॥१३॥ भद्दाए रुट्ठाए निट्ठरवयणेहिं तज्जिया दासी । आ पावे कत्थ ट्ठिया ? अवरावरकज्जभंगेणं ॥१४॥ भद्दाहुत्तं वुत्तं तीए सामिणि ! सुणेहिं विन्नत्तिं । जह इत्थ पुप्फसालो एगो गन्धव्विओ अत्थि ॥१५॥ रायपहे सो दिट्ठो गायन्तो तुम्बरो व्व सो गीयं । तेण सवणामएणं अक्खित्तो पुरजणो सव्वो ॥१६॥ गीएण तस्स सामिणि ! सरसेणं सवणगोयरगएणं । तण्हाछुहादुहाइ वि पसुयाण वि दूरओ जन्ति ॥१७|| अहल च्चिय ते कन्ना अमियरसासारसारगीएण। जेहि न पत्तं सुक्खं देवाण वि दुल्लहं देवि ! ॥१८॥ महुरदक्खापाणं तत्तो वि य होइ सक्करापाणं । तत्तो वि य अमियरसो तओ वि मन्नेमि तग्गीयं ॥१९॥ 15 20 25 Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462