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भ्रमन्तर
बोलीं, “तू क्यों जाग रहा है, भाई ? जाकर सो न जा, मुझे भी सोने दे ।” कह कर आप ही चुप-चाप खाट पर लेट गयीं । मैंने कहा, "मैं जानता हूँ तुम जागती रही हो । ऐसे कैसे होगा, माँ ।"
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" मैं बेटा किसके लिए जागूँगी !" [कह कर माँ ने दूसरी ओर करवट लेली; फिर आगे वह नहीं बोलीं ।
सुन्न, कुछ देर खाट की पटिया पर बैठा ही रहा । दीखने को अँधेरा सुनसान था, और सुनने को भी वही । माँ की साँस मानों उसी अतल गर्भ में से आती लगती थी । धीरे-धीरे प्रतीत हुआ वह सम पर आ रही है । तब मैं अपनी जगह आ गया । आकर लेट रहा । पर नींद न आयी थी, न आयी। बार-बार जग पड़ा था । दूर कहीं तीन बजे का घंटा सुनकर मेरी आँखें फिर खुल गयीं । जग कर देखता क्या हूँ कि माँ वहीं खाट पर अँधेरे में मिलीं प्रश्नचिन्ह की भाँति, उठी बैठी हैं
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आँखें मलीं, और देखा, हाँ, खाट पर वहीं बैठी हैं ।
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मन के भीतर का हाहाकार गुल्म बन कर उठता कंठ की ओर आया । गुस्से में भर कर मैं बोला, "माँ तुम रात भर जागती ही रहोगी क्या ?"
डरी हुई-सी माँ बोलीं, “आँख खुल गयी थी बेटा ।" मैंने डपट कर कहा, "सो जाओ ।"
बोलीं, “अच्छा बेटा ।”
और बोलते के साथ ही खाट पर चुपचाप -सी लेट गयीं । पर दस मिनट लेटी न रही होंगी कि फिर बैठ गयीं। उन्होंने
मुझे सोया जाना होगा। इस बार मुझ से कुछ कहते कुछ-करते न बना । वह अँधेरे में क्या चाहती थीं, क्या सोचती थीं ?