Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 11
________________ [10] ** ****** सचोट खण्डन कर प्रभु महावीर द्वारा प्ररूपित शुद्ध निर्दोष, धर्म की स्थापना की है। इस पुस्तक का प्रकाशन विक्रम संवत् १६६६ में यानी लगभग ६० वर्ष पूर्व हुआ था। उस समय चर्चावादी युग था मूर्त्तिपूजक समाज एवं स्थानकवासी समाज के आचार्यों के बीच चर्चा होती रहती थी और चर्चा में हमेशा मूर्त्तिपूजक समाज को मात खानी पड़ती। क्योंकि वे इसे जिनागम सम्मत सिद्ध करने में हमेशा विफल रहे। यद्यपि वर्तमान चर्चावादी युग तो नहीं है, पर स्थानकवासी समाज में ज्ञान का अभाव होने एवं कुगुरुओं द्वारा धर्म का सही स्वरूप नहीं समझ ने के कारण जिन शासन से भटकनें की स्थिति बनी हुई है। ऐसी विषम स्थिति में इस प्रकार के साहित्य का प्रकाशन आवश्यक समझा गया, ताकि समाज जिनशासन के सही स्वरूप को समझ कर इस के श्रद्धालु बनें तथा जिनेश्वर भगवान् द्वारा उपदेशित साधना मार्ग का अनुसरण कर मोक्ष मार्ग के पथिक बनें । इसी भावना को लेकर इस पुस्तक का प्रकाशन संघ द्वारा किया जा रहा है। इस पुस्तक के साथ अन्य तीन पुस्तकों (लोकाशाह मत समर्थन, मुखवस्त्रिका सिद्धि एवं विद्युत् (बिजली) बादर तेऊकाय है) के प्रकाशन के बारे में धर्म प्रिय उदारमना श्रावक रत्न श्रीमान् वल्लभचन्दजी सा. डागा, जोधपुर निवासी के सामने चर्चा की तो आपको अत्यधिक प्रसन्नता हुई । आपने चारों पुस्तकों के प्रकाशन का सम्पूर्ण खर्च अपनी ओर से देने की भावना व्यक्त की। मैंने आपसे निवेदन किया कि फ्री पुस्तकें देने में पुस्तक की उपयोगिता समाप्त हो जाती है तथा उसका दुरुपयोग होता है। अतएव इन चारों पुस्तकों का दृढ़धर्मी प्रियधर्मी उदारमना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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