Book Title: Jain Viro ka Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Kamtaprasad Jain

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Page 24
________________ ( ७ ) द्योतक हैं ' दण्डसाध्ये रिपावुपायान्तर मग्नात्राहुति प्रदानमित्र | यन्त्रशस्त्रक्षार प्रतीकारे व्याधौ किं नामान्योषधं कुर्यात् ॥ !" - युद्धसमुद्देश ३६-४० अर्थात् - 'जो शत्रु केवल युद्ध करने से ही वश में श्र सकता है, उसके लिए अन्य उपाय करना अग्नि में आहुति देने के समान है । जो व्याधि यन्त्र, शस्त्र या क्षार से ही दूर हो सकती है, उसके लिए और क्या श्रावधि हो सकती है।' इस का तात्पर्य ठीक वही है, जो हम ऊपर कह चुके हैं; तिस पर धर्म, सङ्घ और जाति - भाइयों पर आये हुए सङ्कट के निवारण के लिए अन्य उपायों के साथ 'असिबल' - तलवार के ज़ोर से काम लेने का खुला उपदेश 'पञ्चाध्यायी' के निम्न श्लोकों से स्पष्ट है— अर्थादन्यतमस्योचे रुद्दिष्टेषु स दृष्टिमान् । सत्सु धोरोपसर्गेषु तत्परः स्यात्तदलये | ८०८/ यद्वा नय़ात्म सामर्थ्यं यावन्मंत्रासिकोशकम् । तावद्दृष्टुं च श्रोतुं च तब्दाधां सहते न सः | ८०६ अर्थात्– 'सिद्धपरमेष्टी, श्रर्हतबिम्ब, जिन मन्दिर, चतुर्विधसङ्घ ( मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका ) आदि में किसी एक पर भी आपत्ति आने से उसके दूर करने के लिए सम्यग्दृष्टि पुरुष ( जैनो) का सदा तत्पर रहना चाहिये । " श्रथवा जब तक अपनी सामर्थ्य है और जब तक मन्त्र, तलShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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