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संगठित किया ? क्या वह जैन तीर्थङ्कर भगवान ऋषभदेव नहीं थे? और देखिये, अन्याय का नाश करने के लिये और धर्म का प्रचार करने के लिये जिन वीरों ने दिग्विजय की; क्या वह जैनतीर्थङ्कर शान्ति- कुन्थ- अरह नहीं थे ? तिस पर आत्मबल में पूर्व प्रकाश प्रदीप्त करने वाले वीर-रत्न भी जैन धर्म में एक नहीं अनेक हुये ! हिन्दू राष्ट्र में जहां श्रहिंसात्मक सत्याग्रह द्वारा आत्मबल प्रकट करने का मात्र एक उदाहरण विश्वामित्र और वशिष्ठ के युद्ध में मिलता है; वहाँ जैन तीर्थङ्करों और महा पुरुषों के एक से अधिक चरित्र इस आदर्श को उपस्थित करते थे ! भला कहिये, ये सत्याग्रही वीर उत्पन्न करके जैन धर्म ने भारत की उन्नति की या अवनति ?
इतना ही क्यों ? सोचिये तो सही, वह कौन थे जिन्होंने देश की जननी जन्मभूमि को स्वाधीन बनाये रखने के लिये बड़े से बड़े दुश्मन का सामना किया ? भारत की सीमा पर अपने
र जमाते हुये विदेशियों को किनने मार भगाया ? अरे, किन्होंने यह शिक्षा दी कि पराधीन होने से मर जाना अच्छा है - 'जीवितात्तु पराधीनाजीवानां मरणं वरम्' ? क्या यह जैनाचार्य की उक्ति नहीं है ? फिर ज़रा बताइये कि देशोद्धारक श्रेणिक, नन्दिवर्द्धन, चन्द्रगुप्त आदि क्या जैन नहीं थे ? और हाँ जीते जी शत्रु के हवाले देश को न करने वाले वीर धनराज भला कौन थे ? वह जैन थे - हमारे ही भाई थे ! किन्तु दुःख श्राज हम उन्हीं के अनुचर न कहीं के हैं। लोग हमें और हमारे
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