Book Title: Jain Viro ka Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Kamtaprasad Jain

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Page 100
________________ ( ८३) साथ हमारे प्यारे धर्म को भी बदनाम करते हैं ! भाइयो, सोचो, इसे श्राप कैसे सहन कर सकते हैं ? क्या आप भूल गये वीरवर वस्तुपाल के धर्माभिमान को ? यह वही जैन वीर थे, जिन्हें ने साधुराज का अपमान करने वाले को दण्ड देते हुये, राजा-अपने स्वामी की भी परवा नहीं की थी ? और ? और देखिये उन राष्ट्रकूट, कलभ्र, कुरुम्ब श्रादि वीरों को कर्तव्यनिष्टा को जिन्होंने धर्म और सिर्फ जैन धर्म के लिये बड़ी बड़ी लड़ाइयां लड़ी! किन्तु श्राज तो लड़ाई लड़नेकरुणामई हिंसा करने की भी आवश्यकता नहीं है ! अावश्यकता तो मात्र आत्मबल को प्रकट और अात्म विश्वास को जागृत करने की है ? क्या आप यह भी नहीं कर सकते ? मिथ्या धारण और उदासीनवृत्ति को धता बता कर कर्म वीर बनना क्या आप भूल गये ? बस, यदि आप ज़माने की आवाज़ को श्रादर देकर अपने पूर्वजों के आदर्श को कायम कर देंगे, तो किसकी ताब कि वह आप और अपने धर्म को बदनाम करे ? देश और राज्य में आपको कोई न पूँछे ? केवल आपको ज़रूरत है, इस इतिहास को पढ़ कर, 'नाज़' सा० के कलाम को याद रखने की; 'जिन्दगी हरते हैं किन्तु, वीरता हरते नहीं । धर्म पर मरते हैं जो, जिन्दा हैं वह मरते नहीं ॥ कितने ही निर्बल हों, बलवानों से भय करते नहीं। धान प्यारी है जिन्हें, वह मौत से डरते नहीं।' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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