Book Title: Jain Viro ka Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Kamtaprasad Jain

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Page 82
________________ ( ६५ ) असली नाम "शर्व" था। अमोघवर्ष एक उपाधि मात्र थो! इनकी अन्य उपाधियाँ, जैसे नृपतुङ्ग, महाराज शण्ड, अतिशयधवल, वीर नारायण, पृथिवीवल्लभ, लक्ष्मीवल्लभ,महाराजाधिराज आदि, इन्हें एक महान और वीर राजा प्रकट करती हैं। इनकी कन्या शंखा का विवाह पल्लववंशी दन्तिवर्मा के पुत्रनंदिवर्मा से हुआ था। इन्होंने लगभग सन् ८१५ से ७७ तकराज्य किया और इनकी राजधानी मान्यरवेट में थो । अङ्ग, बङ्ग, मगध मालवा, चित्रकूट और वेङ्गिके राजगण इनकी सेवा करते थे। यद्यपि भेङ्गिके चालुक्यों से युद्ध बराबर जारी ही रहा, परन्तु अन्त में अमोघवर्ष उन पर विजयी हुअा था । सौदागर सुलेमान ने इसकी गणना उस समय संसारके चार बड़े राजाओं में की थी ! इनके द्वारा जैनधर्म की विशेष उन्नति हुई थी और वह स्वयं दिगम्बर जैनमुनि होगया था। श्री जिनसेन, गुणभद्र, महावीर आदि जैनाचाय इसी समय हुये ! इनके उत्तराधिकारियों में "कृष्णराज तृतीय" सब से प्रतापी हुये, जिन्होंने राजादित्य चोल पर बड़ी भारी विजय प्राप्त की थी! इस समय के युद्धों का मूल कारण धार्मिक था ! राष्ट्रकूट नरेश जैनधर्म पोशक और चोल नरेश शेवधर्म पोशक थे। इसने चेर, चोल, पाण्ड्य और सिहेल देशों को जीता था। इस वंश का अन्तिम राजा "इन्द्रराज चतुर्थ" था। गंगनरेश मारसिंह ने इसे राज्य दिलाने की कोशिस की, परन्तु परिणाम क्या हुआ यह मालूम नहीं । इन्द्रराज ने श्रवणवेलShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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