Book Title: Jain Viro ka Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Kamtaprasad Jain

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Page 31
________________ ( १४ ) का लाभ कराया। लागों को सबो स्वाधीनता का मार्ग मिल गया । अब बताइये जैनधर्म के मूल संस्थापक का यह चरित्र कया हमें भीरुता की शिक्षा देता है ? क्या वह यह बतलाता है कि हम लौकिक कर्म में सफल विजेता हुए बिना ही निवृत्तिमार्ग में जा भटके ? नहीं, वह सिखाता है--प्रत्येक जैन को विजयी वीर बन कर आत्म-स्वातन्त्र्य के मग पर लग जाना । सत्य के प्रकाश को प्रकट करने के लिए सर्वस्व निछावर करने को तत्पर रहना। ऋषभदेव जी से धर्मवीर और कर्मवीर बनना, सिखाता है जैन धर्म अपने प्रत्येक भक्त को । यही कारण है कि श्री ऋषभदेव जी और सम्राट भरत के बाद मुसलमानी समय तक जब तक कि जैनधर्म अपने उन्नत रूप में रहाजैनों में अनेक चमकते हुए वीर जन्म लेकर लोक, देश और जाति का कल्याण करते रहे। मध्यकाल में जैनों की वीर और परोपकार वृत्ति इतनी बढ़ी चढ़ी थी कि कविभाष जैसे अजैन और राष्ट्रीय कवि उन्हें सजनता से सुसजित नरश्रेष्ठ समझते थे। अतः प्राइये पाठक गण, अन्य जैनवीरों के उत्साह और साहसवर्द्धक चरित्रों पर भी एक दृष्टि डाल लें। तीर्थङ्कर--चक्रवर्ती। इस युग में जैनधर्म के पहले तीर्थङ्कर भगवान ऋषभदेव थे। उनके बाद तेईस तीर्थङ्कर और हुए। इनमें से सोलहवें, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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