Book Title: Jain Viro ka Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Kamtaprasad Jain

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Page 79
________________ ( ६२ ) करना उसने पाप समझा ! भरत को भी विवेक की सुध आई। वह भाई के गले जा लगे। बाहुवलि इस घटना से इतने विरक्त हुये कि फिर उन्होंने राजपाठ न संभाला । भला, उस राजपाठ को वह करते ही क्या, जो भाई को भाई का दुश्मन बना दे! कितना अादर्श त्याग था! बाहुवलि बन में जा रमे और जैन मुनि होकर कर्म शत्रुओं से लड़ाई लड़ने लगे। उन्हें विजय लक्ष्मी प्राप्त हुई वह मुक्त हो गये । उनकी इस ध्यानमय दशा की भव्य मूर्ति आज भी श्रावणवेलगोल में अपूर्व छटा दर्शा रही है । यह करीब ५७ फीट ऊँची है और दुनियां भर में अनूठी है। दक्षिण वासी अपने इन पहले राजा और महान आत्मवीर का जितना आदर करते हैं, 'उतना उत्तर वासी नहीं। यह है भी ठीक । किन्तु बाहुवलि पौराणिक काल के महावीर हैं । उनके और उन जैसे अन्य दक्षिणीय जैन वीरों के चरित्र जैन ग्रंथों में सुरक्षित हैं । उनके प्रति आदरभाव व्यक्त करते हुये, हम पाठकों को ऐतिहासिक काल में लिये चलते हैं। १-अशोक की गिरिलिपियां प्राचीनता में एक हैं । उनसे दक्षिणी भारत में 'पाण्ड्य, चोल,' और 'चोर' राजवंशों का होना प्रमाणित है। जैन ग्रंथ भी इसका समर्थन करते हैं। 'करकण्डु चरित्' में इन राजवंशों के राजाओं को जैन धर्मानुयायी लिखा है। यह भगवान पार्श्वनाथ जी के ज़माने की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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