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जिन विदेशियों को जैनराजा अबतक भारत से धता बताते श्राये थे, उनका दाँव लग गया। वे भारत के उत्तर-पश्चिमींय सीमा पर अधिकार जमा बैठे। जैनाचार्यों ने इन विदेशी शासकों को घृणा की दृष्टि से नहीं देखा; बल्कि इनमें धर्मप्रचार करने को वह जुट गये । फलतः वह इन विदेशियों को जैनधर्म से प्रभावित कर सके !
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'बादशाह महेन्द्र' (Manander) इनमें एक नामी राजा था । उसका जन्म भारत में ही हुआ था और उसे भारतीय संस्कृति और धर्मों से प्रेम था। इसने अपने बाहुबल से अपना राज्य मथुरा, माहयमिका और साकेत ( श्रवध) तक फैला लिया था । बौद्ध होने के पहले वह जैन धर्मानुपायी था ऐसा प्रतीत होता है !*
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महेन्द्र के अतिरिक्त विदेशियों में क्षत्रिय 'नहपान' का जैनधर्मानुयायी होना बहुत कुछ प्रमाणित है । वह अपने अन्तिम जीवन में जैनमुनि हो गया था और भूतबलिनाम से प्रख्यात् हुआ था । इसी नहपान ने अवशेष श्रंगज्ञान का उद्धार किया था । इस कारण जैन इतिहास में इसका नाम बड़े श्रादर के साथ स्मरण होगा। राजावस्था में इसने लड़ाईयाँ लड़कर अपना राज्य समस्त पश्चिमोत्तर भारत और मालवा तक फैला लिया था !
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* वीर भा० २ पृ० ४४६ - ४४९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
+. सरस्वती, दिसम्बर १९२८
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