Book Title: Jain Viro ka Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Kamtaprasad Jain

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Page 30
________________ । ( १३ ) पहले सम्राट् हुए और इस देश का नाम 'भारतवर्ष' उन्हीं की अपेक्षा पड़ा। भरत के राजा हो जाने पर ऋषभदेव जी ने प्राकृत भेष को धारण कर लिया और वह प्रकृति की गोद में जाकर रहने लगे। “दूसरे शब्दों में कहें तो वे परम हंस अथवा दिगम्बर साधु हो कर गहन तप और अचिन्त्य ध्यान में लीन हो गये।" इधर भरत महाराज ने अपनी तलवार को सँभाला। उन्होंने उन देशो और लोगों को अपने वश में ला कर सभ्य और कर्मण्य बना देना उचित समझा, जो अभी प्रज्ञानान्धकार में पड़े हुए थे। भारत के प्रान्तीय शासक श्रा कर उनके झण्डे के तले इकट्ठे हो गये । बड़ी भारी सेना को लेकर उन्होंने पृथ्वी के कोने-कोने को अपने अधिकार से चिह्नित कर दिया। किन्तु इस दिग्विजय को निकलने के पहले ही उन्हें ज्ञात हुआ था कि भगवान ऋषभदेव सर्वक्ष परमात्मा हो यये हैं । बस, वह चट उनकी वन्दना कर आये थे और उनसे उन्होंने धावक के व्रतों को ग्रहण कर लिया था। इस प्रकार एक व्रती जैन की तरह उन्होंने तलवार ले कर यह दिग्विजय की थी। भागवत में भी ऋषभदेव जी को स्वयं भगवान् और कैवल्यपति ठहराया है। उन्होंने इस सर्वज्ञ रूप में सर्व प्रथम आर्यधर्म का उपदेश दिया। इस युग में जैनधर्म का प्रथम प्रतिपादन यही हुआ था। भगवान ने इस धर्म का प्रचार सर्वत्र विचार कर किया और जनसाधारण को प्रात्म-स्वातन्त्र्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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