Book Title: Jain Viro ka Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Kamtaprasad Jain

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Page 27
________________ कि आज कल के बच्चों को खेलते-खेलते होता है । वह बड़े हैरान थे। तब तक उन्हें पुण्य-प्रताप से जीवन यापन करने के लिए आवश्यक सामग्री स्वतः मिल जाती थी; किन्तु अब वह पुण्य-क्षेत्र न था। वह परेशान थे। कैसे खेत बोवे, अनाज काटे, रोटी बनावें और पेट की ज्वाला शमन करें ? यह उन्हें ज्ञात नहीं था। शैतान जङ्गली जानवरों से अपने को कैसे बचावे ? मेह-बूंद और गर्मी-सर्दी से अपने तन की रक्षा क्यों कर करें? यह कुछ भी वह न जानते थे। इस सङ्कट की हालत में वह मनु नाभिराय के पास भगे गये और अपनी दुःख गाथा उनसे कहने लगे। उन्होंने सोचा और कहा'भाई, अब ऐसे काम न चलेगा। अपना पुण्य क्षीण हो चला है। चलो, अपने में जो विद्वान् दोखे, उसे इस सङ्कट में से निकाल ले चलने के लिए सर्वाधिकारी चुन लें।' लोगों ने उत्तर दिया-'महाराज, इस विषय में हम कुछ नह जानते । जिसे श्राप योग्य समझे, उसे सर्वाधिकारी चुन लीजिये । हमें कोई आपत्ति नहीं।' नाभिराय बोले-'यह ठीक है; पर सोचसमझने की बात है। यद्यपि मुझे इस समय कुमार ऋषभ अथवा वृषभ सर्वथा योग्य अँचते हैं; पर आप लोग भी सोच देखें ।' 'लोगों ने कहा यही ठीक है।' और इसी अनुरूप ऋषभदेव जी नेता चुन लिये गये। वह जन्म से ही असाधारण गुणों के धारक थे। जैनशास्त्र तो उनकी प्रशंसा करते ही हैं; परन्तु हिन्दू शास्त्र भी उनसे इस बात में पीछे नहीं हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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