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हैं। बेशक जैन धर्म में इसी को प्रधान पद मिला हुआ है।और वह है भी ठीक, क्योंकि इन्द्रियों का निग्रह-राग द्वेषादि शत्रुओं को जीत लेना ही महान् विजय है। वही सच्चे सुख
और शान्ति की देने वाली है। किन्तु इस विजयमार्ग में सफल होने के लिए, जैनधर्म अपने अनुयायियों को पहले ही पहल सफल नागरिक बन जाने की शिक्षा देता है। वह कहता है कि 'जे कम्मे सूरा, ते धम्मे सरा।' सच तो है, जो कर्म-क्षेत्र में सफल विजेता होंगे-वही धर्म-मार्ग में भी विजय-श्री पा सकेंगे । यही कारण है कि जैनधर्म अपने भक्तों को सबसे पहले 'निशङ्क' हो जाने को कहता है। यह उनका 'निशाङ्कितगुण' कहा गया है और जैन श्रद्धान में सर्व प्रमुख है।
अब ज़रा सोचिये कि जिस धर्म के साधारण भक्तों को निशङ्क होने की शिक्षा है, उनके महापुरुषों की क्या बात ? यहाँ पर हम पाठको का ध्यान केवल एक उदाहरण को ओर आकर्षित करते हैं। वह देखें भागे के पृष्ठों में इस युग-कालीन जैनधर्म के प्रथम तीर्थङ्कर भगवान ऋषभदेव के चरित्र को । वह जैनों को किस बात की शिक्षा देता है ? इसी के न कि पहले तुम भगवान की तरह लौकिक कार्य-क्षेत्र में पूर्ण विजयी बन जाओ, तब धर्म के निवृक्ति मार्ग की ओर पग बढ़ायो । मोह-ममता के बन्धनों को तोड़ फेंको और आत्म-स्वातन्त्र्य को पाकर पूर्ण स्वाधीन बन जाओ। क्या यह स्वाधीनता आपको प्रिय नहीं है ? जैन-शास्त्र तो इन अनन्त प्रात्म-विजयी वीरShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com