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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
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'तरुण जैन' जून सन् १९४१ ई० टिप्पणीः
[श्री बच्छराजजी की लेखमाला का यह दूसरा लेख है। पहले लेख की भाँति इसमें भी जैन शास्त्रों के उन भौगोलिक विषयों का विवेचन है, जो विज्ञान की तुला पर खरे नहीं उतरते। उनके विषय में, जैसा आज तक रूढ़ि-पंथी लोग करते आए हैं, केवल यह कह कर ही अपने को समझाने का प्रयास किया जा सकता है कि वे 'शास्त्रों की बातें' हैं ! आज तो समाज की जो विचार-भूमिका है, उस पर से यह स्पष्ट है कि शास्त्र की जो बात है, वह सिद्ध हो या न हो, समझ में आए या न आए, पर सच तो वह है ही। सच उसे मानना ही पड़ेगा, अगर आपको धर्मात्मा बनने का शोख है तो। श्री बच्छराजजी की लेखमाला की यही 'अपील' है, जिसके द्वारा वे पाठकों में बुद्धिपूर्वक हरएक विषय पर विचार करने की सच्ची प्रेरणा उत्पन्न करना चाहते हैं। हमें खुशी है, कि 'तरुण' के कई पाठकों ने इस उद्देश्य को ध्यान में रख कर लेखमाला के प्रति अपनी पसन्दगी जाहिर की है। आशा है, यह लेखमाला हर विषय में 'शास्त्रों की बातों' की दुहाई देकर मनुष्य की बुद्धि पर अवांछित गुरडम का भार लादनेवाले गुरुओं में भी सद्बुद्धि जागृत करेगी।
__ -संपादक ] पृथ्विस्थित द्वीप-समुद्र और उनका परिमाण
गत् मास के 'तरुण जैन' में मैंने अपने लेख में यह दिखाने का प्रयास किया था कि जैन शास्त्रों में भौगोलिक विषयों पर
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