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को अभावाल्पक माना है। प्राचार्य बारसैन ने लिखा है कि एक पोवन के भीतर दूर भगवा समीप बैठे हुए मारह महामाषा और सात सौ लकुभाषामों से युक्त विर्षब, मनुष्य पौर देवों की भाषा के रूप में परिणत होने वाली तथा न्यूनता और प्रधिकता से रहित, मधुर, मनोहर, गम्भीर और विषद् भाषा के प्रतिमयों से युक्त तीर्थकर की विष्णम्पनि होती है। जिनसेन ने इसे अशेष-भाषामक कहा है। कोई ध्वनि पयवा भाषा सर्व भाषात्मक प्रयवा प्रश्शेष भाषात्मक रहे, यह कोरी कसना की बात है। तीर्थकर की प्रशान्त मूर्ति और प्रभावक व्यक्तित्व को देखकर वस्तुतः बोता या दर्शक पाकर्षित हो जाते थे। परन्तु उनकी ध्वनि इतनी भाषामों से मुक्त हो और वह मनुम्य तया देवों की भाषा के रूप में परिणत हो, यह कैसे सम्भव है । उस समय अठारह महाभाषायें तथा सात सौ लघु भाषायें भी तो नहीं वीं । तब इसे कैसे सत्य माना जाय ?
इस प्रकार भगवान् महावीर की साधना के सन्दर्भ में जो कुछ भी मिलता है वह केवल जैन साहित्य में है मौर ऐसा जो जैन साहित्य है वह प्रायः उत्तरकालीन है। उनमें भक्ति के कारण चमत्कात्मिक वृति का प्राधिक्य हो जाने से मूल रूप प्रग्छन्न हो गया है । मनः महावीर की तत्कालीन घटनामों का सम्यक विश्लेषण मावश्यक हो जाता है। मैंने यहां उन घटनामों का कुछ विश्लेषण किया है। सम्भव है उसमें मतमेव हो । इसलिए इस विषय में पौर चिन्तन अपेक्षित है।
2. जैन साहित्य परम्परा साहित्य संस्कृति और समाज का दर्पण है । समाज की परम्परा, समृद्धि, विकास-रूपरेखा, दृष्टि, मान्यता प्रादि सारे तत्त्व साहित्य की विशाल परिधि के मन्तर्गत प्रतिबिम्बित होते रहे हैं। व्यष्टि और समष्टि के बीच प्रतिद्वन्धिता, सहयोग, सह-मस्तित्व, सद्भावना, संघर्ष मादि सब कुछ साहित्य की माँ से बच नहीं पाते । इसलिए संस्कृति और समाज के सम्मान में साहित्य को मेरुदाना जा सकता है।
1. 'मो बनान्तरदूरसमीपस्थाष्टादशभाषा--सप्तशतकुभाषा--तिर्यग्देव--- __ मनुष्य भाषाकारन्यूनाधिक-भाषातीतमधुरमनोहरगम्भीरविशदवागतिशय
सम्पन्नः भवन वासिवानव्यन्तर-ज्योतिष्क-कल्पबासीन्द्र-विचार-पतिबल नारायण-राजाधिराज-महाराजाधं- महामणालीकेन्द्राग्नि-वायु-भूतिसिंह-पालादि-देव-विचापर मनुष्यषि-तियं गिन्ने भ्यः प्राप्त-पूजातिशयो
महावीरोऽर्यकर्ता।' (षट्खण्डागम, परसाटीका, प्रयम जिस्व, पृ. 61) 2. मादिपुराण, 23, 154