________________
सोहं सोहं नित, सांस उसास ममार। ताको भरप विचारिये, तीन लोक में सार ||........... !'
जसो तसो भार, पाप निह तजि सोहं । प्रजपा जाप संभार, सार सुख सोहं सोहं ॥1
मामन्दधन का भी यही मत है कि जो साधक पाशापों को मारकर अपने मन्तः करण में अजपा जाप को जपते हैं वे चेतनमूर्ति निरंजन का साक्षात्कार करते हैं। कबीर मादि सतों ने भी सहज-साधना, शब्द सुरति और शब्द ब्रह्म की उपासना की। ध्यान के लिए प्रजपा जाप भौर नाम जप को भी स्वीकार किया है। सहज समाधि को ही सर्वोपरि स्वीकार किया है।
साधक कवि को परमात्मपद पाने के लिए योग साधना का मार्ग जब दुर्गम प्रतीत होता है तो वह प्रपत्ति (भक्ति) का सहारा लेता है। रहस्य साधकों के लिए यह मार्ग मधिक सुगम है इसलिए सर्व प्रथम वह इसी मार्ग का प्रवलम्बन लेकर क्रमश: रहस्य भावना की चरम सीमा पर पहुंचता है। रहस्य भावना की भूमिका चार प्रमुख तत्वों से निर्मित होती है-मास्तिकता, प्रेम और भावना, गुरु की प्रधानता और सहज मागे । जैन साधकों की प्रास्तिकता पर सन्देह की आवश्यकता नहीं। उन्होंने तीर्थकरों के सगुण और निगुंग दोनों रूमों के प्रति अपनी अनन्य भक्ति भावना प्रदर्शित की है। धानतराय की भगवद् प्रेम भावना उन्हें प्रपत्त भक्त बनाकर प्रपत्ति के मार्ग को प्रशस्त करती है।
प्रपत्ति का अर्थ है अनन्य शरणागत होने अथवा प्रात्मसर्पण करने की
भावना। नवधाभक्ति का मूल उत्स भी प्रपस्ति है। भागवत पुराण में नवषाभक्ति के 9 लक्षण हैं-श्रवण, कीर्तन, स्मरण , पादसेवन (शरण), अर्चना, वंदना, दास्पभाव. सख्यभाव और भात्म निवेदन । कविवर बनारसीदास ने इनमे कुछ अन्तर किया है । पाचरात्र लक्ष्मी मंहिता में प्रपस्ति की षविधायें दी गई है
1. बर्मविलास, पृ. 65 2. मानन्दधन बहोत्तरी, पृ. 359 3. अनहद शब्द उठ झनकार, तहं प्रभु मैठे समरथ सार । कबीर अन्धाक्मी
पृ. 301 4. संतो सहज समाधि भली । कबीर वाखी, पृ. 262
अवन, कीरतन, चितवन, सेवन वन्दन ध्यान । लघुसा समता एकता नौधा भक्ति प्रमान ।।
नाटक समयसार, मोजदार, 8, 1.218