________________
*94
पंचर्म परिवर्त में रहम्यभावना में बाधक तत्वों की स्पष्ट किया गया है। रहस्यसाधना का चरमोत्कर्ष ब्रह्मसाक्षात्कार है। साहित्य में इसको मात्म-साक्षात्कार परमात्मपद, परम सत्य, अजर-अमर पद, परमार्थ प्राप्ति भादि नामों से उल्लिचित fear गया है । म्रतः हमने इस अध्याय में भ्रात्म चिन्तन को रहस्यभावना का केन्द्र बिन्दु माना है । आत्मा ही साधना के माध्यम से स्वानुभूति पूर्वक अपने मूल रूप परमात्मा का साक्षात्कार करता है। इस स्थिति तक पहुंचने के लिए साधक को एक लम्बी यात्रा करनी पड़ती है। हमने यहाँ रहस्यभावना के मार्ग के बाधक तत्वों को जैन सिद्धांतों के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है। उनमें सांसारिक विषय-वासना शरीर से ममत्व, कर्मजाल, माया-मोह, मिथ्यात्व बाह्याडम्बर और मन की चंचलता पर विचार किया है । इन कारणों से साधक बहिरात्म अवस्था में ही पड़ा रहता है।
षष्ठ परिवर्त रहस्यभावना के साधक तत्वों का विश्लेषण करता है । इस परिवर्त में सद्गुरु की प्रेरणा, नरभव दुर्लभता, म्रात्म- संबोधन, प्रात्मचिन्तन, चिरा शुद्धि, भेदविज्ञान भौर रत्नत्रय जैसे रहस्यभावना के साधक तत्वो पर मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य के प्राधार पर विचार किया गया है। यहां तक आते- प्राते साधक अन्तरात्मा की अवस्था को प्राप्त कर लेता है ।
सप्तम परिवर्त रहस्यभावनात्मक प्रवृत्तियों को प्रस्तुत करता है । इस परिवर्त में अन्तरात्मावस्था प्राप्त करने के बाद तथा परमात्मावस्था प्राप्त करने के पूर्व उत्पक्ष होने वाले स्वाभाविक भावों की अभिव्यक्ति को ही रहस्यभावनात्मक प्रवृतियों का नाम दिया गया है । प्रात्मा की तृतीयावस्था प्राप्त करने के लिए साधक दो प्रकार के मार्गों का अवलम्बन लेता है— सावनात्मक और भावनात्मक । इन प्रकारों के अन्तर्गत हमने क्रमश. सहज साधना, योग साधना, समरसता प्रपत्ति-भक्ति, प्रायात्मिक प्रेम, प्राध्यात्मिक होली, प्रनिर्वचनीयता प्रादि से सम्बद्ध भावों और विचारों को चित्रित किया है।
utee परिवर्त में मध्यकालीन हिन्दी जैन एवं जैनेतर रहस्यवादी कवियों का संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन किया गया है । इस सन्दर्भ में मध्यकालीन सगुण. निर्गुण और सूफी रहस्यवाद की जैन रहस्य भावनाके साथ तुलना भी की गई है। इस सन्दर्भ में स्वानुभूति, भारमा मौर ब्रह्म, सद्गुरु, मावा, प्रात्मा ब्रह्म का सम्बन्ध, बिरहा नुभूति, योग सामना, भक्ति, अनिर्वचनीयता आदि विषयों पर सांगोपांग रूप से विचार किया गया है।
प्रस्तुत प्रबन्ध में मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि को हमने बहुत संक्षेप में ही उपस्थित किया है और काल विभाजन के विवाद एवं नामकरण में भी इम नहीं उसके । विस्तार और पुनरुक्ति के भय से हमने भावि कालीन और मध्य