Book Title: Jain Sanskrutik Chetna
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Sanmati Vidyapith Nagpur

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Page 129
________________ iii शनैः परिवार विघटित होते जा रहे हैं। विदेशों में 'पारिवारिक विवंटन की प्रक्रिया तो स्वाभाविक कही जा सकती है परन्तु भारत जैसे सुसंस्कृत और शान्तित्रिये देश में विघटन के मूल तत्वों को समूल नष्ट करना आवश्यक है । नारी अनन्त शक्ति की लोतस्विनी है और विविध रूपा भी 1 पुत्री, पत्नी एवं माता के ममतामयी रूपों में उसका व्यक्तित्व प्रतिभासित होता है । इन सभी रूपों की भूमिका निभाने का तात्पर्य है एक बहुत बड़े उत्तरदायित्व को सम्हालना | शायद वह व्यस्तता भरे जीवन के कारण इन उत्तरदायित्वों को पूर्णतया निभाने में सक्षम नहीं हो पा रही है । इसीलिए परिवारों freerare rea नजर आने लगे हैं। ऐसा लगता है, मब महिलाएं अधिक प्रात्म केन्द्रित होकर अपने कसम से विमुख होती जा रही हैं। इसे हम नारी शिक्षा या प्रशिक्षा का परिणाम कहें या परिस्थिति जम्य पर्याय रणगत विफलताएं, यह प्रश्न विचारणीय है । इतिहास साक्षी है कि समय-समय पर नारी स्वातन्त्र मान्दोलन भगवान महा वीर, महात्मा बुद्ध, राजा राम मोहन राय, रामकृष्ण परमहंस आदि जैसे क्रान्ति कारी महापुरुषो धौर समाज सुधारकों द्वारा होते रहे हैं। उनके प्रगतिशील उपदेशों से प्रेरित होकर नारी वर्ग ने स्वयं जति लाने का प्रयत्न किया। फिर भी उसमें मपेक्षित जागृति नही था सकी । प्रपेक्षित जागृति लाने के लिए माधुनिक युग में भी नेक प्रान्दोलन हुए। स्वतन्त्रता और समानता का अधिकार देने के उद्देश्य से अन्तरराष्ट्रीय महिला वर्ष भी मनाया गया । पर इन सबके बावजूद जो प्रगतिशीलता महिलाधों के व्यक्तित्व में समाविष्ट होनी चाहिए भी वह नही हो पायी । इसका प्रमुख कारण रहा- परिस्थितियों के अनुकूल उसकी शिक्षा-दीक्षा का प्रभाव । परम्परागत शिक्षा नीति अपनाने से महिलाओंों में घपने वैचारिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की योग्यता नहीं मा पाई। हाँ, आधुनिक का सुखोटा उसने भवश्य मोड़ लिया। दुर्भाग्बवश वह शिक्षित होकर यूरोप और अमेरिका जैसे संपन्न देशों की te geral का अंधानुकरण करने लगी। पर ये सब काम हमारी समाज में हमारी भारतीय संस्कृति के अनुकूल बैठते हैं या नहीं, इस प्रश्न पर तनिक भी विचार नहीं किया । समावश्यकता है संतुकरण को रोक कर परिवारों को समायोजित करने की, विसंगतियों और विक्की प्रतियों को रोकने की तथा कुंठा, भयो उत्पीड़न से निर्युक होने को बिना इसके वह अपने कदन काये नहीं बढ़ सकती । भी शेष की नहीं पाता। हेय मानव प्लेट

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