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इन्द्रिय पांचस्य, मति माय मत मानसिक बीमः परम्परा कोरका सरि ने प्रारम्भ किया जो नारी में माधुरि रूप शारीरिक दोष दिसाकर उसका
इन दोनों परम्परामों में एक मोर नारी को शारीरिक और मानसिक रोगों से मात्र माना गया । मोर दूसरी पीर उसमें मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता को स्वीकार किया गया है। यहां दोनों विचारों में पारस्परिक विरोष दिखाई देता है। उदाहरणार्ग शुक्ल श्याम के पहले दो प्रकार-(1) पृथकस्व वितकं सविधार, (2) एकवितर्क विचार प्राप्त किये बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता। 'पूर्व' मान के बिमा शुक्स यान के प्रथम दो प्रकार प्राप्त नहीं होते और 'पूर्व दृष्टिबाद का एक भान है-शुपले पाये पूर्ववियः । (तत्वाचं सूत्र, ५,39) पवाद दृष्टिवाद के सम्मायन विमा केबसमान की प्राप्ति नहीं होती और केवलमान बिना मुक्ति प्राप्ति नहीं होती। ऐसी स्थिति में नारी को मुक्ति प्राप्ति का अधिकार दिया जाना पारस्परिक विचारविरोष व्यक्त करता है । इसका समाधान इस प्रकार किया जाता है कि शास्त्र मारी में दृष्टिवाद के पर्मशान की तो पोम्यता मानता है पर उसे शाबिक अध्ययन का निवेश करता है। पर यह समाधान उचित नहीं दिखाई नेता क्योकि शान्दिक मध्ययन के बिना पर्षमान कैसे होगा?
जन वर्णन के अनुसार नारी की योग्यता के सन्दर्भ में दिगम्बर और श्वे. ताम्बर पम्पराये कुल मिलाकर बहुत दूर नहीं है । उन दोनों में नारी को पुरुष के समका बैठा नही देखते। इतना ही नही, प्राकृतिक दुर्बलतामों के कारण धनपोर निन्दा कर उसे ही दोषी ठहराया गया है। नारी की दुवंस्था का मूल कारण कदाचित यही रहा है कि उसे सांपत्तिक और धार्मिक अधिकार नहीं दिये गये। पाचार्य जिमसेन ने इस तथ्य को महसूस किया और उसे पुत्रों की भांति सम्पत्ति में समान अधिकार प्रधान किये-पुत्रयश्च संविभामाॉ. सम पुत्रः समांशके: (381.54)। इसी तरह से पूजा प्रमाल का भी अधिकार मिला । अंजना सुन्दरी, मैना सुन्दरी, मदनमेवा प्रावि ऐतिहासिक किंवा पौराणिक नारियों ने जिन प्रया-प्रशान किया हो।यह विदित है। होना भी चाहिए । जब उसे कर्मों की निर्जरा करने का बर्विकार है, क्षमता है तब उसे पूज्य-प्रक्षाल से रोकना एक प्रमानवीय मोर भसामा• विककता ही समा बाना पाहिए । ऐसी. परम्परामों के विरोध में नारी को एक मायाब से पाये बहकर पार्मिक कड़ियों को समाप्त करना-करवामहिए।
1. विशेषावस्यक माम्ब, मावा 552.