Book Title: Jain Sanskrutik Chetna
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Sanmati Vidyapith Nagpur

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Page 119
________________ .112 प्रस्तुत परम्परा पर पुनर्विचार आवश्यक है। यदि यह विवाहित हो जाती है ता इन सारी विपदाओं से वह मुक्त हो जाती है। फिर यह प्राकृतिक विपन् नारी को ही क्यों, नर को क्यों नहीं ? मात्र इसीलिए की नारी अबला है, परतन्त्रता में का सारा जीवन व्यतीत होता है ? पर वह सामाजिकता की दृष्टि से भी ठीक नहीं है। यदि परिस्थितियाँ अनुकूल हों और वह महिला सहमत हो तो उनका पुनfare समाज को मान्य होना चाहिए। हां, यदि ऐसी कोई महिला afte fear प्रध्यात्मिकता के क्षेत्र में अपना कदम आगे बढ़ाना चाहे तो फिर पुनर्विवाह का प्रश्न ही नहीं उठता। जो भी हो, इस विकट समस्या पर सहानुभूति पूर्वक विचार किया जाना चाहिए और ऐसी महिलायों को जीवनदान दिया जाना चाहिए जो पब से विचलित होने के कंगार पर खड़ी हुई हों। X X X माय शिक्षा के क्षेत्र में नारी वर्ग महनिश भागे बढ़ता चला जा रहा है। उसके हर क्षेत्र में उसने अपनी साख बना ली है । प्रायः हर परीक्षा में प्रथम धाने बालों में महिलाओं की संख्या प्रषिक रहती है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है फि नारी में प्रतिभा की कमी नहीं है । कमी है उसे समुचित क्षेत्र तथा सुविधाएं मिलने की । माज भी बहुत परिवार ऐसे हैं जो अपनी कन्याम्रों को शिक्षित नहीं कर पाते या शिक्षित करना नहीं चाहते । प्रार्थिक समस्या भाड़े पाती है या मानसिक संकीर्णता का जोर अधिक रहता है । पारिवारिक संघर्ष का भी वह एक कारण बन जाता है । प्रत समाज के अभ्युदय की दृष्टि से महिला वर्ग को सुशिक्षित करना प्रावश्यक है । वर्तमान में एक और सबसे बडी समस्या है धर्म को व्यावहारिक बनाने की veer व्यावहारिक क्षेत्र में धर्म को समाहित करने। धर्म के तीन पक्ष होते हैंप्राध्यात्मिक, दार्शनिक और व्यावहारिक । प्राध्यात्मिक धर्म प्रात्मिक अनुभव प्रधान होता है। दर्शन प्रधान धर्म चिन्तन के क्षेत्र में भाता है और व्याबहारिक धर्म याच रण के क्षेत्र में माना जा सकता है। यह धाचरण ही धर्म बन जाता है । प्रश्न यह है कि यह धर्म कैसा है ? जैन धर्म मूलतः भाव के साथ जुड़ा आचरण प्रधान धर्म है । उसका माचार व्यावहारिक है । प्रव्यावहारिक नहीं । उसे जीवन में सरलता पूर्वक उतारा जा सकता है । मानवता के कोने-कोने को झांककर जैन धर्म ने अपने मूलाचार को निर्मित किया है। परन्तु बाज हम उसके मूल रूप को भूलकर मात्र का क्रियाओं पर ध्यान देने लगे हैं। यह वैसे ही होगा जैसे हम धान में से चावल निकास ने पर उड़ती हुई धान की फुकली को ही पकड़ने दौड़ते रहें। मे बाह्य क्रियाकाण उस भाग की फुकली के समान हैं जो निःस्व है। रात्रि भोजन व डो जोड़ना तो ठीक है ही, पर साथ ही महिला, धस्य चादि पंचाशुव्रतों का परिपालन मी होना चाहिए। जब तक हम रागादि विकारों को छोड़ने का प्रयत्न नहीं करेंगे

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