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परम्परा प्रभावित भी है। प्रतः समस्याओं के मूल रूप को समझापानमा
बायका-समाज विशाम कीमोर मोड़ लगा रहा है और बिहान श्वना भूलता लामा रहा है कि उसे मह भी पता नहीं रह बाबाकिमतिका किर चिड़िया का नाम है ? माध्यात्मिकता का उसके साथ क्या सम्बन्ध है. मावस्या क्या है ? समाजवाद की सही विक्षा क्या है ?
इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण मिलते हैं जहां धर्म के कारण संघर्ष हुए हैं और राष्ट्र के राष्ट्र तहस-नहस हो गये हैं। उसके डीभत्स रूप को देखकर ही सायद चिन्तकों ने धर्म को अफीम कह दिया। परन्तु प्रश्न यह है कि धर्म क्या वस्तुतः अफीम है । प्रफीम रहा होगा किन्हीं परिस्थितियों में । परन्तु क्या उन परिस्थितियों को सार्वजनी न माना जाये? क्या यह कहा जा सकता है कि वे सारी परिस्थितियां भाज भी वैसी की वैसी ही है ? इसे हम निश्चित ही स्वीकार नहीं कर सकेंगे। उस समय की परिस्थितियां मलग थीं और प्राज की परिस्थितियां अलग हैं। धर्म परिस्थितिजन्य होता है।
जैन दर्शन में "वत्थु सहावो धम्मो" कहकर धर्म की परिभाषा की है । इस परिभाषा से यह अभिव्यक्त होता है कि वस्तु मूलतः अप्रभावित रहती है। वह स्वयं में परिपूर्ण है। तत्वतः उसमें तीन गुण रहते हैं-उत्पाद, व्यय पोर ध्रौव्य । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि वस्तु प्रभावित और परिवर्तित भी होती रहती है पर उसका स्वभाव नष्ट नहीं होता । धर्म का एक अन्य स्वरूप है-कर्तव्य । व्यक्ति, समय, देश काल प्रादि की दृष्टि से कर्तव्य पृथक्-पृथक् हो जाते हैं ।
धर्म की और भी जितनी व्याख्यायें हुई है वे सभी इन दोनों प्यास्यानों के भास-पास महराती रहती है। प्रथम व्याख्या में हम संसार को कलिक मारकर पलते है। इसलिए उसमें अनासक्ति का भाव लिहिन रहता है। दूसरा स्वरूप कर्तव्य-का बोष कराता है। प्रथम उपदेशात्मक है मौर नितीप व्यावहारिक । इन सेनों स्वरूपों को समन्वित रूप में देखना यस्कर है
मानन्द मिमित करीब दोष हमारे समाज के हर वर्ष से गिरता बसाका है। ग्रामसार की बोर अधिक व्यान देते है, परमाही मोर कल। यपि साप और परमार्थ का संचय सदेव होता रहा है पर-मार को उनका नाममा