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1. प्रकल
महाकाया, परसहि काम, कथा काव्य बस्ति काव्य रासा साहित्य
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2.काहीची विवम्लो, चेतमकर्म चरित
13. व्यात्म पीर भक्तिमूलक काव्य-स्तवन, पूजा, भीमाई, जयमाला,
चोचर, फागू, पुनी, बेल, म बारहमासा आदि ।
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4. गीति काव्य - विविध प्रसंगों और फुटकर विषयों पर निर्मित भीत 5. प्रकर्सक काव्य - लाक्षणिक, कोश, गुर्वाजली, आत्मकथा भादि ।
उपर्युक्त प्रवृतियों को समीक्षात्मक दृष्टिकोण से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सभी प्रतियां मूलतः प्राध्यात्मिक उद्देश्य को लेकर प्रस्फुटित हुई हैं। इन रचनाओं में माध्यात्मिक उद्देश्य प्रधान है जिससे कवि की भाषा प्रालंकारिक न होकर स्वाभाविक पौर सात्विक दिखती है। उसका मूल जला रहस्यात्मक मनुभव भौर भक्ति रहा है।
चतुर्थ परिवर्त रहस्यभावना के विश्लेषण से सम्बद्ध है । इसमें हमने रहस्य भावना और रहस्यवाद का प्र ंतर स्पष्ट करते हुए रहस्यवाद की विविध परिभाषाओं का समीक्षण किया है और उसकी परिभाषा को एकांगता के संकीर्ण दायरे से हटा कर सर्वागीण बनाने का प्रयत्न किया है । हमारी रहस्यवाद की परिभाषा इस प्रकार है -- "रहस्यभावना एक ऐसा माध्यात्मिक साधन है जिसके माध्यम से साधक स्वायुसूनि पूर्वक प्रात्म तत्व से परम तत्व में लीन हो जाता है । यही रहस्यभावना प्रत्रिव्यक्ति के क्षेत्र में माकर रहस्यवाद कही जा सकती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि मध्यात्म की चरमोत्कर्ष अवस्था की अभिव्यक्ति का नाम रहस्यबाद है । यहीं हमने जैन रहस्य साधकों की प्राचीन परम्परा को प्रस्तुत करते हुए रहस्यवाद मौर अध्यात्मवाद के विभिन्न प्रायामों पर भी विचार किया है। इसी सन्दर्भ में और जैनेतर रहस्मभावना में निहित प्रन्तर को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है ।
यहां यह भी उल्लेक्य है कि जैन रहस्व साधना में प्राना की तीन अवस्थायें मानी गयी है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा बहिरास्मा में जीव जन्म-मरण के कारण स्व सुख के मक्कर में भटकता रहता है। विवावस्था (मा) में पहुंचने पर संकार के कारणों पर गम्भीरतापूर्वक चित करने से मारा की पोर उत्सुक हो जाता है। कनः वह भौतिक हको क्षीरस्यायन कसा है। वच्ता (परमात्मा बाबाचार की प्राप्ति के कर है। इन्हीं तीनों वापर
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