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संस्कृति में होता ह
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स्वरूप टिका
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नहीं है। इसी
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vetrated ear को नास्तिक कह दिया गया था। वहां पावे। परन्तु वह वर्गीकरण नितान्द्र मावार मौर के अतिरिक वैदिक wer के मीमांसा पर सार नास्तिक को feareा की सीमा में मां जायेंगे । प्रसवता का विषय fears 'नास्तिक' की इस परिवांचा को स्वीकार जिसके मद में पुण्य मीर पाप का कोई महत्व न हो। तक दर्शन है । उसमें स्वर्ग, नरक, मोक्ष कवि की व्यवस्था स्वयं के कम रित है । उसमें ईस्वर अपना परमात्मा सापक के लिए दीपक का कार्य य है, परन्तु वह किसी पर कृपा नहीं करता, इसलिए कि वह बौवरामी
नहीं करते ।
जैनवर्शन इंस
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जैन दर्शन की उक्त विशेषता के प्राचार पर भाषा को हमें परिवर्तित करना पड़ेगा। जैन मिलन प्राप्ति में सहायक कारण मानता अवश्य है. पर हो प्रथवा उसकी प्राप्ति के पथ में पारमार्थिक दृष्टि से उसका कोई उपयोग नहीं। इस पृष्ठभूमि पर हम रहस्यवाद की परिभाषा इस प्रकार कर सकते है
भोगो को की. होनमोच की
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" अध्यात्म की चरम सीमा की अनुभूति रहस्यवाद है। यह वह है, जहां प्रारमा विशुद्ध परमात्मा बन जाता है और वीतरागी होकर चन्द र का पान करता है।"
रहस्यवाद की यह परिभाषा जैन साधना की दृष्टि से प्रस्तुत की है। जैन साधना का frere यथासमय होता रहा है। यह एक ऐति वह विकास तत्कालीन प्रचलित जनेतर सामनाओंों से प्रभावित भी रहा है
पर हम मैन रहस्यवाद के विकास को निम्न भागों में विभाजित कर सकते -
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(1) प्रादिकाल प्रारम्भ से लेकर ई. प्रथम
तब
(2) सपकाल - प्रथम द्वितीय सती से 7-8 वीं (३) उतरकाल -- 8 पी 9 वीं शती से आधुनिक का
के समकक्ष बनाने का प्रयत्न करता है।
स्यवर्ती पुरुषों में मुख है।
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1. प्रादिकाम-वेद और उपनिषद में पढ़ा का खानात्कार करना लक्ष्य माना जाता था । जीन रहस्यवाद, जैसा हम ऊपर कह चुके है ईश्वर को ईश्वर के रूप में स्वीकार नहीं करता। यहां जैन-दर्शन अपने को परमा माता है और उसके द्वारा विदिष्ट मार्ग पर
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