Book Title: Jain Sanskrutik Chetna
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Sanmati Vidyapith Nagpur

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Page 87
________________ 10 और उनकी सूक्ष्म विशेषताओं को मोर भी संकेत किया है। जम्बूद्वीप का लम्बा चौड़ा वर्णन मौर उसमें भी भरत क्षेत्र को एक छोटा-सा सुचण्ड बतलाने में पाक कित-सा हो जाता है और फिर विदेह जैसे उपलब्ध देश-प्रदेशों को श्रद्धा के कोणों से जड़ दिया जाने पर तो वह और भी विक जाता है । इस संदर्भ में मेरा सुक्राव है कि जिन नथ्यों को हम अस्वीकार नहीं कर सकते और जो अब विशेषाभाषी प्रतीत होने लगे हैं उनकी तस्यात्मकता को स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए । जैन भौगोलिक साहित्य में भी काव्यात्मकता का प्रयोग किया गया है । कवि अपने कवित्व से पीछे खिसक नहीं सकता। इसलिए उसने नदियों पर्वतों आदि के affe में भी afare का भरपूर उपयोग किया है। उनके छोटे-से प्राकार-प्रकार को भी हदाकार का रूप दे दिया है । फिर जो भी प्रथम प्राचार्य ने लिख दिया उसके मूल स्वरूप की स्वीकार कर, उसी की परिधि में रहकर उसका वन किया जाता रहा है । उस वन में जहां भी वह प्रतिशयोक्ति का प्रयोग कर सका, किया है । इतनी बड़ी कालावधि में नदियों के रूप तथा उनके मार्ग भी परिवर्तित हुए हूँ। नामों में भी प्रन्तर भाया है । यह हम भलीभांति जानते हैं । फिर जैन कवियों ने इन नामों का अनुवाद भी कर दिया अपनी प्रावश्यकतानुसार प्रतीको का भी उर योग किया नगर भी ध्वस्त हुए हैं और निर्मित हुए हैं। ऐसी स्थिति में प्राचीन भौगो लिक वर्णन माधुनिक भौगोलिक स्थिति के भालोक मे कुछ उगमगाता - सा यदि नजर माये तो उससे पवडाने की प्रावश्यकता नही है । उसे उलटा-सीधा सिद्ध करने की uter] अथवा वर्तमान भूगोल को प्रपलापित करने की भपेक्षा कदाग्रह छोड़कर स्वी कार कर लेना अधिक प्रछा है। वैज्ञानिक धरातल को छोड़कर अप्रत्यक्ष चौर प्रभात यथास्थिति के परिपालन में अपनी शक्ति को लगाये रखने का कोई विशेष अर्थ नहीं दिखता बल्कि इसका प्रतिफल यहां पर हो सकता है कि नई पीढ़ी उससे और दूर होती चली जाये। इसलिए धार्मिक मान्यता और वैज्ञानिक मान्यता के बीच जो सामंजस्य प्रस्थापित हो जाये उसे स्वीकार कर लिया जाना चाहिए और जो विरोध बजर पाये उस मात्र मान्यता की परिधि में निहित कर देना चाहिए। संभव है, पाने का विज्ञान उसे भी सिद्ध कर दे ।

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